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________________ २०२ [समरामकहा विसेसो वहारिन्जइ ति । अस्थि ताव सो इयरसरहेउसिंगाणमभेयप्पसंगओ, विसेसावहारणे उज्जमो कायव्वो त्ति । न हि अयं थाणुस्स अवराहो, जमंधो न पस्सइ ति। जं च भणियं-अदेस्सपरमाणुनिप्पन्नं घडाइ देस्सं ति, एयं पि न जुत्तिक्खमं । जओ न एगतेण अहेसा परमाणवो, जोगिदंसणाओ कज्जदसणाओ य। न य एवं भयधम्मसंकमो चेयणाए त्ति, एयं पि अओ चैव पडिसिद्धं वेइयव्वं, चेयणस्स अचेयणभेयाओ त्ति । अह मन्नसे, सत्तालक्खणधम्मसंकमाओ न दोसो ति। एयं पि न सोहणं ति । तस्स सयलभावसाहारणत्तेणमणियामगत्ताओ त्ति । तओ संगयं चेव मए भणियं ति । तहा जंच भणियं--'तहाविहपरिणामाभावाओ चैव न घडादीणं चेयण' त्ति । एत्थ नत्थि पमाणं; भूयसमुदयवइरित्तपरिणामन्भुवगमे य अन्नाभिहाणो जीवन्भुवगमो ति। तओ सविलियं भणियं पिंगकण-भयवं ! जइ एवं अणिदियगुणो जीवो, ता सरीराओ वि भिन्नो। एवं च होतगे मम पियामहो महुपिंगो नाम, सो अणेयसत्तसंघायणरओ आसि त्ति । तुह दरिसणेण नियमेण नरए समुप्पन्नो। ममोवरि अइसिणेहसंगओ य आसि, इहलोयाकरणिज्जनिवाविशेषोऽवधार्यते इति । अस्ति तावत् स इतरशरहेतुशृङ्गाणामभेदप्रसंगतः, विशेषावधारणे उद्यमः कर्तव्य इति । न हि अयं स्थाणोरपराधः, यद् अन्धो न पश्यति इति । यच्च भणितम्–'अदृश्यपरमाणुनिष्पन्नं घटादि दृश्यम्' इति, एतदपि न युक्तिक्षमम् । यतो नैकान्तेन अदृश्याः परमाणवः, योगिदर्शनात् कार्यदर्शनाच्च । न च एवं भूतधर्मसंक्रमश्चेतनायामिति, एतदपि अतएव प्रतिषिद्धं वेदितव्यम् , चेतनस्य अचेतनभेदादिति । अथ मन्यसे, सत्तालक्षणधर्मसंक्रमाद् न दोष इति । एतदपि न शोभनमिति । तस्य सकलभावसाधारणत्वेन अनियामकत्वादिति । ततः संगतमेव मया भणितमिति । तथा यच्च भणितम्-'तथाविधपरिणामाभावादेव न घटादीनां चेतना' इति, अत्र नास्ति प्रमाणम् ; भूतसमुदयव्यतिरिक्तपरिणामाभ्युपगमे च अन्याभिधानो जीवाभ्युपगम इति । ततः सव्यलीकं भणितं पिङ्गकेन-भगवन् ! यदि एवमनिन्द्रियगुणो जीवः, ततः शरीरादपि भिन्नः । एवं च भवति (सति) मम पितामहो मधुपिङ्गो नाम, सोऽनेकसत्त्वसंघातनरत आसीदिति। तव दर्शनेन (मतेन) नियमेन नरके समुत्पन्नः, ममोपरि अतिस्नेहसंगतश्च आसीत्, इहलोकाऽकरकठोर, चमकदार आदि धर्म उसमें विद्यमान रहते हैं। यदि मानते हो कि विशेषों का अवधारण नहीं होता है तो दूसरी वस्तु से बनाये जाने वाले बाणों में अभेद हो जायेगा। विशेष का निश्चय करने का उद्यम करना चाहिए । यहठ का अपराध नहीं है जो कि (उसे) अन्धा नहीं देखता है । जो कहा कि 'अदृश्य परमाणु से बना घड़ा दृश्य है' यह भी युक्ति युक्त नहीं है; क्योंकि एकान्त रूप से परमाणु अदृश्य नहीं हैं; क्योंकि उनका योगियों को प्रत्यक्ष होता है और कार्य भी दिखाई देता है। इसी प्रकार भूतों के धर्म का संक्रम चेतना में नहीं कह सकते, क्योंकि चेतन और अचेतन में भेद होता है । इसी से आपकी बात का निषेध हो जाता है। यदि मानते हो कि सत्ता लक्षण धर्म विद्यमान रहने के कारण दोष नहीं है तो यह भी ठीक नहीं है। क्योंकि सत्ता तो सभी पदार्थों में साधारण रूप से विद्यमान है, अत: सत्ता इस विषय में नियामक नहीं है । अत: मेरा कहना ठीक है तथा जो कहा गया कि उस प्रकार के परिणामों के अभाव के कारण घटादि में चेतना नहीं है तो इसका (आपके पास) कोई प्रमाण नहीं है । भूतों के समूह से अलग परिणाम मानने पर अन्य नाम वाला जीव मान लेना चाहिए।" तब कपटपूर्वक बोलते हुए पिंगक ने कहा-"भगवन् ! यदि इस प्रकार जीव अनिन्द्रिय है तो वह शरीर से भी भिन्न है । ऐसा होने पर मेरा पितामह मधुपिंग नाम का था । वह अनेक प्राणियों के मारने में रत था। आपके मतानुसार निश्चित रूप से नरक में उत्पन्न हुआ है । मेरे ऊपर उसका अत्यधिक स्नेह था, इस लोक में जो Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001881
Book TitleSamraicch Kaha Part 1
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1993
Total Pages516
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & literature
File Size13 MB
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