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तहमो भवो
__ एवं च पयंपिरंपि विजयसिंहायरिए ईसि विहसिऊण भणियं पिंगकेण-भयवं! सव्वमसंबद्धमेव भणियं भयवया। कहं ? सुण-जं ताव भणियं-'सव्वहा अचेयणाणि भूयाणि, ना कहं इमाणं एयप्पगारपरिणामपरिणयाण वि एसा पच्चक्खप्पमाणाणुभूयमाणा गमणाइचेट्ठानिबंधणा चेयणा जुज्जइ त्ति; न हि जं जेसु पत्तेयं न विज्जए तं तेसि समुदए वि हवइ, जहा वालगाथाणगे तेल्लं', एयं कहं जज्जइ त्ति ? । न हि कारणाणुरूवमेव कज्जं भवइ । किण्ण होइ सिंगाओ सरो? किं वा अदेस्सपरमाणुनिप्पन्नं घडाइ देस्सं ति ? एवं चेयणा वि तक्कज्जा य भविस्सइ, भूयविलक्खणा य त्ति को विरोहो? जं च भणियं-'अह पत्तेयं पि इमाणि चेयणाणि त्ति, तओ सिद्धमणेयचेयन्नसमुदओ पुरिसो, एगिदिया य जीवा घडादीणं च चेयण त्ति' इच्चेवमादि, तं पि न सोहणं । तेसि चेव तहाविहपरिणामभावओ, तदभावओ चैव न घडादीणं च चेयण त्ति।
भयवया भणियं-सुण, जं भणियं-'किण्ण होइ सिंगाओ सरों' ति ? सो होइ, न ऊण कारणाणणुरुवो, इयरसरविलक्खण मसिण-घण-लण्हाइतद्धम्मसंकमाओ त्ति । अह मन्नसे, न सो
एवं च प्रजल्पति विजयसिंहाचार्ये ईषद् विहस्य भणितं पिङ्गकेन-भगवन् ! सर्वमसंबद्धमेव भणितं भगवता । कथम् ? शृणु, यत् तावद् भणितम्-'सर्वथा अचेतनानि भूतानि, ततः कथमेषामेतत्प्रकारपरिणामपरिणतानामपि एषा प्रत्यक्षप्रमाणानुभूयमाना गमनादिचेष्टानिबन्धना चेतना युज्यते इति ? न हि यद् येषु प्रत्येकं न विद्यते, तत् तेषां समुदयेऽपि भवति, यथा बालुकास्थानके तैलम्', एतत् कथं युज्यते इति ? न हि कारणानुरूपमेव कार्य भवति । किं न भवति शृङ्गात् शरः ? किं वा अदृश्यपरमाणुनिष्पन्नं घटादि दृश्यमिति ? एवं चेतनाऽपि तत्कार्या च भविष्यति भूतविलक्षणा च इति को विरोधः ? यच्च भणितम् -- 'अथ प्रत्येकमपीमानि चेतनानि इति, ततः सिद्धमनेकचैतन्यसमुदयः पुरुषः, एकेन्द्रियाश्च जीवाः घटादीनां च चेतना इति' इत्येवमादि, तदपि न शोभनम् । तेषामेव तथाविधपरिणामभावतः, तदभावतश्चैव न घटादीनां चेतनेति ।
भगवता भणितम्-शृणु, यच्च भणितम् - 'कि न भवति शृङ्गात् शरः' इति ? स भवति, न पुनः कारणाननुरूपः, इतरशरविलक्षणमसृण-घन-श्लक्ष्णादितद्धर्मसंक्रमाद्-इति । अथ मन्यसे, न स
विजयसिंहाचार्य के ऐसा कहने पर कुछ हँसकर पिंगक ने कहा-"भगवन् ! आपने सब असम्बद्ध कहा।" कैसे ? सुनो, जो आपने कहा कि भूत सर्वथा अचेतन हैं तो कैसे इस प्रकार के परिणामों से परिणत यह प्रत्यक्ष प्रमाण से अनुभव की जाने वाली, गमनादि चेष्टाओं की कारण चेतना युक्तियुक्त है ? जो प्रत्येक में नहीं होता है वह उनके समूह में भी नहीं होता है। जैसे बालू के ढेर में तेल-यह कैसे ठीक है ? कारण के अनुरूप ही कार्य नहीं होता है । क्या सींग से बाण नहीं बनता है ? अथवा अदृश्य परमाणु से बनाये गये घड़े आदि नहीं होते है ? इसी प्रकार चेतना भी भूतों का कार्य है जो उससे विलक्षण है-इसमें क्या विरोध है ? जो कहा गया कि 'इन सबमें चेतना है तो चैतन्यों का प्रत्येक समूह जीव सिद्ध है, एकेन्द्रियादि जीव तथा घटादि में भी चेतना सिद्ध है. इत्यादि-यह भी कहना ठीक नहीं है; क्योंकि जिन वस्तुओं में उस प्रकार का परिणाम होता है उन में ही चेतना होती है। जिनमें इस प्रकार का परिणाम नहीं है, उनमें चेतना भी नहीं है। इसी से घटादि में (उस प्रकार के परिणामों के अभाव के कारण) चेतना नहीं है।"
भगवान् ने कहा- "सुनो, जो कहा गया कि क्या सींग से बाण नहीं बनता है ? (इस पर हमारा कहना है कि) वह बनता है किन्तु वह कारण के अनुरूप न हो, ऐसी बात नहीं है । क्योंकि दूसरे बाणों से विलक्षण, चिकना,
१. विलक्खगो-क-ग।
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