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________________ २०० समराच्या पुरिसो" त्ति अभिहाणं पवत्तइ', एयं पि क्यणमेतं । चेव चेयन्नस्स तदइरेगभाववित्तीओ। न याणुभूयमाणसरूवा चेव चेयणा निसेहिउं पारीयइ। तहा जं च भणियं-'न उण एत्थ कोइ देहं चइऊण घडचिडओ विव परभवं गच्छइ' ति, एयं पि अओ चैव पडिसिद्ध वेइयव्वं, चेयणस्स अचेयणभेयाओ त्ति। तहा जं च भणियं-ता मा तुमं असंते वि परलोए मिच्छाभिणिवेसभावियमई सहावसुंदरं विसयसुहं परिच्चयसु, दंसेहि वा मे देहवइरित्तं देहिणं', एत्थ वि य सुण-चेयन्न भेयसिद्धीए कहं नत्थि परलोगो ? विज्जमाणे य तम्मि कहं एयस्स मिच्छाभिणिवेसो ? कहं च पसुगणसाहारणा विडंबणामेत्तरूवा चितायासबहुला मणनिव्वाणवेरिणो अविनायवीसम्भसुहसरूवा सहावसुंदरा विसय ति, किं च तेहितो सुहं ? जं पुण 'सो देहभिन्नो न दोसई', एत्थ कारणं सुण-सुहुमो अणिदिओ य सो वत्तए, अओ न दोसइ त्ति । पेच्छंति पुण सव्वन्नू । भणियं च वीयराहि अणिदियगुणं जीवं अविस्सं मंसचक्खुणो। सिद्धा पस्संति सव्वन्नू नाणसिद्धा य साहुणो॥३०६॥ वचनमात्रमेव । चैतन्यस्य तदतिरेकभाववृत्तितः । न चानुभूयमानस्वरूपा एव चेतना निषेद्धं शक्यते । तथा यच्च भणितम्-'न पुनरत्र कोऽपि देहं त्यक्त्वा घटचटक इव परभवं गच्छति' इति, एतदपि अत एव प्रतिषिद्धं वेदितव्यम् , चेतनस्य अचेतनभेदाद् इति । तथा यच्च भणितम्-'ततो मा त्वं असत्यपि परलोके मिथ्याभिनिवेशभावितमतिः स्वभावसुन्दरं विषयसुखं परित्यज, दर्शय वा मम देहव्यतिरिक्तं देहिनम्', अत्राऽपि च शृणु-चैतन्यभेदसिद्धया कथं नाऽस्ति परलोकः ? विद्यमाने च तस्मिन् कथमेतस्य मिथ्याभिनिवेशः ? कथं च पशु गणसाधारणा विडम्बनामात्ररूपाश्चिन्ताऽऽयासबहुला मनोनिर्वाणवैरिणोऽविज्ञातविस्रम्भसुखस्वरूपाः स्वभावसुन्दरा विषया इति ? किं च तेभ्यः सुखम् ? यत् पुनः ‘स देहभिन्नो न दृश्यते', अत्र कारणं शृण-सूक्ष्मोऽनिन्द्रियश्च स वर्तते, अतो न दृश्यत इति । प्रेक्ष्यन्ते पुनः सर्वज्ञाः । भणितं च वीतरागैः अनिन्द्रियगुणं जीवमदृश्यं मांसचक्षुषः । सिद्धाः पश्यन्ति सवज्ञा ज्ञानसिद्धाश्च साधवः ॥३०६॥ वचन मात्र है; क्योंकि चैतन्य अतिशयता को लिये हुए है। जिसका अनुभव होता है-ऐसी चेतना का निषेध नहीं किया जा सकता है तथा जो कहा कि घटचटक के समान कोई शरीर छोड़कर परलोक नहीं जाता है-यह भी इसी से खण्डित समझना चाहिए; क्योंकि चेतन का अचेतन से भेद होता है, तथा आपने जो कहा कि असत्य परलोक में मिथ्या अभिप्रायवश बुद्धि कर स्वभाव से सुन्दर विषय सुखों को मत त्यागो अथवा देह के अतिरिक्त मुझे देही दिखलाओ, इस विषय में भी सुनो-चैतन्य की पृथक् सिद्धि होने पर परलोक कैसे नहीं है ? परलोक के विद्यमान होने पर इसके विषय में मिथ्या अभिप्राय कैसा ? पशुओं में भी पाये जाने वाले, विडम्बना मात्र रूप वाले, चिन्ता और परिश्रम की जिसमें बहुलता है, जो मन की मुक्ति के वैरी हैं, जिनका विश्वस्त रूप ज्ञात नहीं है ऐसे विषय स्वभाव से सुन्दर कैसे हैं ? उनसे सुख क्या है ? जो कि 'शरीर से भिन्न वह दिखाई नहीं पड़ता है', उसका कारण भी सुनो-वह सूक्ष्म तथा अनिन्द्रिय है अतः वह दिखाई नहीं देता है। पुनः सर्वज्ञ देखते हैं। वीतरागों ने कहा है अनिन्द्रिय गुण वाला जीव मांस के नेत्रों से दिखाई नहीं देता है। सर्वज्ञ, ज्ञानसिद्ध साधु और सिद्ध (उसे) देखते हैं । ॥३०६॥ १. चेयण-क-ख । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001881
Book TitleSamraicch Kaha Part 1
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1993
Total Pages516
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & literature
File Size13 MB
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