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सइओ भवो ]
जहा 'केण तुमं पयारिओ' त्ति एस जम्मंतरम्भत्थकुसल भावणाभावियमई अप्पावरणसंजुओ वीयरागवयणाविन्भूय खओवसमभावेण समुप्पन्नतत्तनाणी जहट्ठियं भवसहावमवबुज्झिऊण तओ विरत्तो, न उण केइ विप्पयारिओ त्ति । तहा जं च भणियं - न खलु एत्थ पंचभूयवइरित्तो पर लोगगामी जीवो समत्थी, अवि य एयाणि चेव भूयाणि सहावओ चेव एयप्पगारपरिणामपरिणयाणि जीवो ति भण्णंति', एयं पि न जुत्तिसंगयं । जओ सव्वहा अचेयणाणि भूयाणि । ता कहं इमाणं एयप्पगारपरिणामपरिणयाण वि एसा पच्चवखपमाणाणुभूयमाणा गमणाइचेट्टानिबंधणा चेयणा जुज्जइ त्ति । न हि जं जेसु पत्तेयं न विज्जए, तं तेसि समुदए वि हवइ, जहा बालुगाथाणए तेल्लं । अह 'पत्तेयं पि इमाणि चेयणाणि' त्ति, तओ सिद्धमणेगचेयन्नसमुदओ पुरिसो, एगिंदिया य जीवा, घडादीणं च चेयणत्तणं ति । न य घडादीणं चेयण त्ति । अओ अत्थि खलु पंचभूयवइरित्तो चेयणारूवो परलोगगामी जीवो त्ति । तओ य जं भणियं - 'जया एयाणि चइऊण समुदयं पंचत्तमुवगच्छंति, तया "मओ
शृणु । यत् त्वया भणितम्, यथा 'केन त्वं प्रतारितः' इति एष जन्मान्तराभ्यस्त कुशलभावनाभावितमतिरल्पावरणसंयुतो वीतरागवचनाऽऽविर्भूतक्षयोपशमभावेन समुत्पन्नतत्त्वज्ञानो यथास्थितं भवस्वभावमवबुध्य ततो विरक्तः, न पुनः केनचिद् विप्रतारित इति । तथा यच्च भणितम् -- खलु अत्र पञ्चभूतव्यतिरिक्तः परलोकगामी जीवः समर्थ्यते, अपि च एतानि एव भूतानि स्वभावत एव एतत्प्रकारपरिणामपरिणतानि जीव इति भण्यन्ते, एतदपि न युक्तिसंगतम् । यतः सर्वथा अचेतनानि भूतानि । ततः कथमेषामेतत्प्रकारपरिणामपरिणतानामपि एषा प्रत्यक्षप्रमाणानुभूयमाना गमनादिचेष्टानिबन्धना चेतना युज्यत इति । नहि यद्येषु प्रत्येकं न विद्यते, तत् तेषां समुदयेऽपि भवति, यथा बालुकास्थानके तैलम् । अथ 'प्रत्येकमपि इमानि चेतनानि' इति, ततः सिद्धमनेकचैतन्यसमुदयः पुरुषः, एकेन्द्रियाश्च जीवाः घटादीनां च चेतनत्वमिति । न च घटादिनां चेतनेति । अतोऽस्ति खलु पञ्च भूतव्यतिरिक्तश्चेतनारूपः परलोकगामी जीव इति । ततश्च यद् भणितम् — 'यदा एतानि त्यक्त्वा समुदयं पञ्चत्वमुपगच्छन्ति, तदा "मृतः पुरुषः" इत्यभिधानं प्रवर्तते, तदपि
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किससे उगाये गये हो' यह दूसरे जन्मों में अभ्यास की हुई शुभभावना वाली बुद्धि से युक्त होकर अल्प आवरण सहित, वीतराग पुरुषों के वचनों से प्रकटित हुए, क्षयोपशम भाव से जिसे तत्त्वज्ञान प्राप्त हो गया है, ऐसा होकर संसार के स्वभाव को ठीक-ठीक जानकर यह विरक्त हो गया है, किसी के द्वारा यह ठगा नहीं गया है तथा जो कहा कि पांच भूतों के अतिरिक्त परलोक जाने वाला जीव समर्थित नहीं होता है और ये भूत ही स्वाभाविकतया इस प्रकार के परिणाम से परिणत होकर जीव कहे जाते हैं - यह भी युक्तिसंगत नहीं है; क्योंकि भूत सर्वथा अचेतन है । वहाँ प्रत्यक्ष प्रमाण से अनुभव में आनेवाला गमनादि चेष्टाओं का कारण चेतनायुक्त होना है । इस प्रकार के परिणाम से परिणत वस्तु चेतना कैसे हो सकती है । जो प्रत्येक में विद्यमान नहीं होता है, वह उनके समूह में भी विद्यमान नहीं होता है । जैसे -- बालू के ढेर में तेल । यदि प्रत्येक में ये चेतनाएं विद्यमान हैं तो अनेक चेतन का समूह पुरुष सिद्ध होता है, एकेन्द्रिय जीव भी सिद्ध होते हैं और घटादिकों में भी चेतना सिद्ध होती है ! किन्तु घटादिकों में चेतना नहीं है, अतः पांच भूतों से अलग चेतना रूप जीव है जो परलोक में जाता है। जो आपने कहा कि 'जो इन्हें छोड़कर समुदय पंचस्व को प्राप्त होते हैं । वे जीव मृत कहे जाते हैं' यह भी
१ पयारिओ क ।
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