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________________ २२२ (समराहचकहा से अणुव्वयाणि, तव्वावायणवीसंभसमुप्पायणनिर्मित्तं सम्भावेण विय गहियाई च तीए। तओ कंचि वेलं गमेऊण पयट्टो कुमारो। भणिओ य जालिणीए-जाय ! अज्ज तए इहेव भोत्तव्वं ति । सिहिकुमारेण भणियं-अंब ! अणायारो खु एसो समणाणं, जं मोतूण महुयरवित्ति एगपिंडभोयणं ति । जालिणीए भणियं-जाय ! तुम जाणसि त्ति । एवं च सो पइदिणं से करेइ धम्मदेसणं । चितेइ य जालिणी एयस्स मारणोवाए, न यावडइ कोइ सुहुमो उवाओ ति। अन्नया आगया चउद्दसी। ठिया साहुणो उववासेणं भिक्खाणहिंडणेणं । मुणिया य तीए। तओ चितिउं पयत्ता। जइ कहंचि कल्लं न एस वावाइज्जइ, तओ गमिस्सइ पक्खसंधीए । न एत्थ अन्नो कोइ उवाओ; ता करेऊण कंसारं तालपुडसंजुयं चेगं विसमोयगं गोसे उवणेमि एयाणं, निबंधओ य भुंजाविस्सामि एते । तओ सहत्थपरिवेसणेणं तम्मोयगप्पयाणणं वावाइस्सं इमं ति। संपाइयं जहासमोहियमिमाए। गया गोसे चेव भोयणं घेत्तूण तमुज्जाणं जालिणी । दिट्ठा सिहिकुमारेण, भणिया य तेणं--अंब ! किमेगागिणी किंपि अणुचियं घेतूण आगया सि ? जालिणीए भणियं-जाय ! अत्तणो चेव पुण्णाहिलासिणी तुम्हाण व्रतानि, तद्व्यापादनवित्रम्भसमुत्पादन निमित्तं सद्भावेनेव गहीतानि च तया। ततः कांचिद् वेला गमयित्वा प्रवृत्तः कुमारः । भणितश्च जालिन्या-जात ! अद्य त्वया इहैव भोक्तव्यमिति । शिखिकुमारेण भणितम्-अम्ब ! अनाचारः खलु एष श्रमणानाम्, यन् मुक्त्वा मधुकरवृत्तिमेकपिण्डभोजनमिति । जालिन्या भणितम् - जात ! त्वं जानासि इति । एवं च स प्रतिदिनं तस्यै करोति धर्मदेशनाम् । चिन्तयति च जालिनी एतस्य मारणोपायान, न चाऽऽपतति कश्चित् सूक्ष्म उपाय इति । अन्यदा आगता चतुर्दशी। स्थिताः साधव उपवासेन भिक्षाऽहिण्डनेन । ज्ञातश्च तया । ततश्चिन्तयितुं प्रवृत्ता। यदि कथंचित् कल्यं न एष व्यापाद्यते, ततो गमिष्यति पक्षसन्धौ । नाऽत्र अन्यः कोऽपि उपायः; ततः कृत्वा कंसारं (लपनश्रियम) ताल पुटसंयुतं चेकं विषमोदकं प्रत्युषसि उपनयामि एतेषाम्, निर्बन्धतश्च भोजयिष्यामि एतान । ततः स्वहस्तपरिवेषणेन तन्मोदकप्रदानेन व्यापादयिष्ये इममिति । सम्पादितं यथासमोहितमनया । गता प्रत्युषसि एव भोजनं गृहीत्वा तदुद्यानं जालिनी। दृष्टा शिखिकुमारेण, भणिता च तेन-अम्ब ! किमेकाकिनी किमपि अनुचितं गहीत्वा आगताऽसि ? जालिन्या भणितम्-जांत ! आत्मन एव पुण्याभिलाषिणी युष्माकं भोजनमिति । शिखिकुमारेण विश्वास उत्पन्न कराने के लिए ही मानो उसने उन व्रतों को ग्रहण कर लिया। तब कुछ समय बिताकर कुमार आया। जालिनी ने कहा- "पूत्र ! आज तुम यहीं भोजन करना।" शिखिकुमार ने कहा--- "माता ! यह लिए अनाचार है कि भ्रामरी वत्ति को छोडकर एक जगह भोजन करें।" जालिनी ने कहा-"पूत्र ! तम जानते हो।" इस प्रकार वह प्रतिदिन उसे धर्मोपदेश देता और जालिनी इसके मारने की उपाय सोचती, किन्तु कोई सूक्ष्म उपाय (समझ में) नहीं आ रहा था। एक बार चतुर्दशी आयी। साधु लोग भिक्षा के लिए भ्रमण न कर ठहर गये । उसे ज्ञात हुआ तब सोचने लगी-यदि यह कल नहीं मारा जाता है तो पखवाड़ा बीत जायोगा। इस में कोई अन्य उपाय नहीं है। तब कंसार बनाकर तालपट (तत्काल प्राणनाशक विषविशेष से युक्त एक विषभरा लड्डू प्रातः इसके पास ले जाऊँगी। आग्रह करके इसे खिला दूंगी और अपने हाथ से परोसे हुए उस लड्डू को देकर उसे मार डालूगी । अपनी इच्छा के अनुसार इसने कार्य किया। प्रातःकाल भोजन लेकर जालिनी उस बाग में गयी। शिखिकुमार ने देखा और कहा-"माता ! क्या अकेली कोई अनुचित वस्तु लेकर आयी हो?" जालिनी ने कहा-"पुत्र ! अपने पुण्य की अभिलाषा कर तुम्हारा भोजन लायी हूँ।" शिखिकुमार ने कहा For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.001881
Book TitleSamraicch Kaha Part 1
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1993
Total Pages516
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & literature
File Size13 MB
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