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भूमिका ]
प्रथम भव की कथा का मूल स्रोत- प्रथम भव की मूल कथा का स्रोत वसुदेवहिण्डी की 'कंसस्स पुण्वभवो' कथा में आता है । तदनुसार कंस अपने पूर्वभव में तापसी था । इसने भी मासोपवास का नियम ग्रहण किया था। यह भ्रमण करता हुआ मथुरापुरी आया। महाराज उग्रसेन ने उसे अपने यहाँ पारणा का निमन्त्रण दिया। पारणा के दिन चिस विक्षिप्त रहने के कारण उग्रसेन को पारणा कराने की स्मृति न रही और वह तापसी राजप्रासाद में यों ही घूमकर पारणा किये बिना लौट गया। उसेन ने स्मृति आने पर पुनः उस तापसी को पारणा के लिए आमन्त्रण दिया, किन्तु दूसरी और तीसरी बार भी वह भूल गया । संयोगवश समस्त राजपरिवार भी ऐसे कार्यों में व्यस्त रहता था, जिससे पारणा कराना सम्भव नहीं हुआ। उस तापसी ने इसे उग्रसेन का कोई षड्यन्त्र समझा और निदान किया कि अगले भव में मैं इसका वध करूँगा । निदान के कारण वह उग्र तापसी उग्रसेन के यहाँ कंस के रूप में जन्मा ।'
द्वितीय भव की कथा
जम्बूद्वीप के अपरविदेह क्षेत्र में जयपुर नाम का नगर था वह अपरिमित गुणों का निधान था और श्रेष्ठ देवनगर के समान लगता था । वहाँ का राजा पुरुषदत्त था । उसकी समस्त अन्तःपुर में प्रधान श्रीकान्ता नामक देवी थी। वह चन्द्रानन विमान का अधिपति देव आयु पूर्ण कर वहाँ से च्युत हो श्रीकान्ता के गर्भ में आया। उसकी कुक्षि से वह पुत्र के रूप में उत्पन्न हुआ। उसका नाम सिंह रखा गया; क्योंकि उसकी माता ने अपने गर्भ में सिंह प्रवेश करते हुए देखा था अपने विशिष्ट पुण्यों का अखण्डित फल भोगते हुए अपने परिजनवृन्द के मनोरथों के अनुरूप प्रजा के सौभाग्य से उस राजकुमार ने, जिसकी ज्योत्सना बढ़ती जा रही है, जो लोगों के मन और नेत्रों के लिए आनन्दप्रद है उस चन्द्र की तरह क्रमशः यौवन प्राप्त किया। वह यौवन अनुपम शोभायुक्त कलाओं के कारण विशेष आकर्षक तथा जन-जन के मन व नयनों के लिए आनन्ददायी था ।
एक बार यौवन को प्राप्त हुए कामदेव के भी हृदय के अनुकूल तरुण पुरुषों के हृदय को आनन्द पहुँचाने वाला वसन्तकाल आया । उस समय उसने क्रीडासुन्दर उद्यान में अपने मामा की सुन्दर कन्या कुसुमावली को देखा । अनन्त भवों के रागरूपी अभ्यास के दोष से उसने अभिलाषा से युक्त होकर उसे देखा । उसने भी भ्रम से जल्दी-जल्दी पीछे हटते हुए उधर से उसकी ओर देखा । इसी बीच प्रियंकरा दासी ने कहा - 'स्वामिनि ! आगे मत बढ़ो, आगे मत बढ़ो । यह राजा पुरुषदत्त का आपके ही पिता की बहिन के गर्भ से उत्पन्न सिंह नाम का कुमार है। आप यहाँ पहले से आयी हुई हैं, आपको वापिस लौटते देखकर ये कहीं अशिष्टता न समझें। अतः यहीं ठहरिए और इन महानुभाव का राजकन्या के योग्य सत्कार कीजिए।' राजकुमारी लज्जाशील थी । दासी ने राजकुमार से उन दोनों के पास बैठने के लिए कहा। प्रियंकरा ने माधवी पुष्प की माला से युक्त पान को सोने की तस्तरी में भेंट किया। राजकुमार ने उसे प्रहण किया। इसी बीच कुसुमावली की माता द्वारा उसे बुलाने के लिए भेजा गया कन्याओं के अन्तःपुर का सम्भरायण नामक वृद्ध सेवक आ गया। उसने अर्द्धनिमीलित नयनों से कुमार, जो उधर नहीं देख रहा था, का अवलोकन करती हुई कुसुमावली को देखा । सम्भरायण ने सोचा - कामदेव का रति से समागम हो गया । अनन्तर सम्भरायण के निवेदन करने पर घबड़ाहट से कुमार को देखती हुई उद्यान से निकल गयी और कुमार के विषय में ही सोचती हुई अपने प्रासादगृह पहुँची। उसने अपनी समस्त सखियों को विदा कर दिया और प्रेम की
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१. हरिभद्र के प्राकृत कथा साहित्य का आलोचनात्मक परिशीलन, पू. १८८
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