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बीमो भवो]
१०६ काऊणं तहि निवडामो।' पडिस्सुयं च मे इमं जायाए। गयाइं तमुद्देसं, कओ पणिही, निवडियाई गिरिनिगुंजे, साहियं लीलारइणो । समुप्पइओ य सह चंदलेहाए गयणयलमलंकरेन्तो लीलारई । दिट्ठो य अम्हेहिं । समुप्पन्ना मे चिता -- 'अहो सव्वकामियपडणाणुभावो, जमेयं सुगमिहुणयं कयविज्जाहरपणिहाणमिह निवडिऊण तक्खणा चेव विज्जाहरमिहणयं जायं। ता अलं अम्हाण पि इमिणा तिरियभावेण ।' तओ देवपणिहि काऊण निवडामो एत्थ अम्हे वि त्ति। एवं च संपहारिऊण पणिहं काऊण निवडिया तत्थ अम्हे। एत्थंतरमि य उप्पइयं सुयमिहुणयं, न लक्खियमम्हेहिं । तओ संचुणियं गोवंगो अहं किलेसमणहविऊण अकामनिज्जराए कम्मं खविऊण उववन्नो कुसुमसेहराभिहाणे वंतरभोम्मनयरे देसूणपलिओवमाऊ वंतरो त्ति । तत्थ य उदारे भोए भुंजामि जाव, इयरो वि सुयत्ताए मरिऊण रयणप्पभाए चेव पुढवीए लोहियामुहाभिहाणे नरए समुप्पन्नो देसूणपलिओवमट्टिई नारगो त्ति । तओ अहं अहाउयमणुपालिऊण चुओ समाणो एत्थ चेव विदेहे अन्नम्मि विजए चक्कबालउरे नयरे अप्पडिहयचक्कस्स सत्थवाहस्स सुमंगलाए भारियाए कुच्छिसि पुत्तत्ताए उववन्नो ति । जाओ य उचियसमएण, पइट्ठावियं च मे नामं चक्कदेवो, पत्तो य बालभावं । एत्थंतरम्मि जायया । गतौ त.मुद्देशम्, कृतः प्रणिधिः, निपतितौ गिरिनिकुञ्ज, कथितं लीलारतेः । समुत्पतितश्च सह चन्द्रलेखया गगनतलमलंकुर्वन् लीलारतिः । दृष्टश्चावाभ्याम् । समुत्पन्ना मे चिन्ता-'अहो ! सर्वकामितपतनानुभावः, यदेकं शुकमिथुनं कृतविद्याधरप्रणिधानमिह निपत्य तत्क्षणादेव विद्याधरमिथुनकं जातम् । ततोऽलम् आवयोरपि अनेन तिर्यग्भावेन ।' ततो देवप्रणिधिं कृत्वा निपताव: अत्र आवामपीति । एवं च सम्प्रधार्य प्रणिधिं कृत्वा निपतितौ तत्रावाम् । अत्रान्तरे च उत्पतितं शुकमिथुनम्, न लक्षितमावाभ्याम् । ततः संचूणिताङ्गोपाङ्गोऽहं क्लेशमनुभूय अकामनिर्जरया कर्म क्षपयित्वा उपपन्नः कुसुमशेखराभिधाने व्यन्तरभौमनगरे देशोनपल्योपमायुर्व्यन्तर इति । तत्र चोदारान् भोगान् भुजे यावत्, इतरोऽपि शुकतया मृत्वा रत्नप्रभायामेव पृथिव्यां लोहितमुखाभिधाने नरके समुत्पन्नो देशोनपल्योपमस्थिति रक इति । ततोऽहं यथायुष्कमनुपाल्य च्युतः सन् अत्रैव विदेहे अन्यस्मिन् विजये चक्रवालपुरे नगरे अप्रतिहतचक्रस्य सार्थवाहस्य सुमङ्गलाया: भार्यायाः कुक्षौ पुत्रतयोपपन्न इति । जातश्च उचितसमयेन, प्रतिष्ठापितं च मे नाम चक्रदेवः,
पर्वतीय लतागृह से कूद पड़े, लीलारति से कहा था ही ।आकाशतल को अलंकृत करता हुआ लीलारति चन्द्रलेखा के साथ उड़कर आया । हम दोनों ने उसे देखा। मैंने विचार किया, 'ओह ! सभी कामनाओं को पूरा करने वाले स्थान का प्रभाव जो कि एक तोते का जोड़ा विद्याधर का ध्यान कर यहाँ से गिरकर उसीक्षण विद्याधर युगल हो गया। अतः हम दोनों का यह तिर्यंचगति धारण करना व्यर्थ है । अतः देव का ध्यान कर हम दोनों भी यहीं गिर पड़ें ।' इस प्रकार निश्चय कर ध्यानकर हम दोनों वहाँ से गिर पड़े। इसी बीच तोते का जोड़ा उड़ गया। हम लोगों को दिखाई नहीं दिया । तब अंगोपांग टूट जाने पर क्लेश का अनुभव कर अकामनिर्जरा से कर्म का नाश कर कुसुमशेखर नामक व्यन्तरों के नगर में कुछ कम एक पल्प की आयु वाला व्यन्तर हुआ। वहाँ पर अनेक भोगों को भोगा। दूसरा भी शुकयोनि से मरकर रत्नप्रभा पृथ्वी में कहीं लोहित नामक नरक में कुछ कम एक पल्य की आयु वाला नारकी हुआ। तदनन्तर मैं आयु को भोगकर च्युत होकर इसी विदेह क्षेत्र के दूसरे विजय (देश) में चक्रवालपुर नगर में अप्रतिहतचक्र नामक व्यापारी की सुमंगला नामक पत्नी की कोख में पुत्र के रूप में आया। उचित समय पर मेरा जन्म हुआ। मेरा नाम चक्रदेव रखा गया और बाल्यावस्था को प्राप्त हुआ। इसी
१. जमयं-क।
२. संचुरिय-क ।
३. वंतरसुरो त्ति-क।
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