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[समराइच्चकहा
यन्वो त्ति । उवाए गवेसिउमारद्धो । अन्नया लीलारई नाम विज्जाहरो, सो मियंकसेणस्स विज्जाहरस्स भइणि चंदलेहाभिहाणि अवह रिऊण तब्भएणेवागओ तमुद्देसं । भणिओ य तेण सो सुगो- 'अहं एत्थ गिरिनिगुंजे चिट्ठामि; आगमिस्सइ य एत्थ एगा विज्जाहरा, तओ न तुमए तस्स अहं साहियव्वो गओ य सो ममं साहियव्वो, तओ ते किंचि पडिरूवमुवयारं करिस्सामि, एवं कए सुट्ठ मे उकयं' ति जंपिऊणमोइण्णो वियडतडाभोगसंठियं गिरिनिगुंजं । इयरो वि तम्मि चेवुद्देसे नारंगपायवसाहागए नोडे चिट्ठइ, जाव आगंतूण गओ मियंकसेणो। एत्थंतरम्मि य करेणुपरिगओ अहं आगओ तमुद्देसं । तओ मं दळूणं चितिथं सुगेण ---अथिइयाणि अवसरो मे समीहियस्स । तओ नियडिबहुलेण सजायाए सहाभिमंतिऊण मम सवणगोयरे भणियं- 'सुंदरि! सुयं मए भयवओ वसिट्ठमहरिसिस्स समीवे, जहा इहं सुंसुमारपबए सव्वकामियं नाम पडणमत्थि; जो जं अभिलसिऊण पडइ, सो तक्खणेण चेव तं पावई' ति । तओ मए पुच्छियं-'भयवं ! कहिं पुण तमुद्देसं ?' तेण साहियं'जहा इमस्स सालतरुवरस्स वामपासेणं ति। ता अलं इमिणा तिरियभावेण, एहि, विज्जाहरपणिहाणं
अन्यदा लोलारति म विद्याधरः, स मगासेनस्य विद्याधरस्य भगिनी चन्द्रलेखाभिधानामपहृत्य तद्भयेनैवागतस्तमुद्देशम्। भणितश्च तेन स शुक:--'अहमत्र गिरिनिकुञ्जे तिष्ठामि; आगमिष्यति चात्र एको विद्याधरः; ततो न त्वया तस्याहं कथयितव्यः, गतश्च स मम कथयितव्यः, ततस्ते किञ्चित्प्रतिरूपमुपकारं करिष्यामि, एवं कृते 'सुष्ठ मम उपकृतमिति कथयित्वा अवतीर्णो विकटतटाभोगसंस्थितं गिरिनिकुञ्जम् । इतरोऽपि तस्मिन् एव उद्देशे नारङ्गपादपशाखागते नीडे तिष्ठति, यावदागत्य गतो मृगाङ्कसेनः। अत्रान्तरे च करेणुपरिगतोऽहं आगतस्तमुद्देशम्। ततो मां दृष्ट्वा चिन्तितं शुकेन-अस्ति इदानीमवसरो मे समीहितस्य । ततो निकृतिबहुलेन स्वजायया सहाभिमन्त्र्य मम श्रवणगोचरे भणितम् -'सुन्दरि ! श्रुतं मया भगवतो वशिष्टमहर्षेः समीपे, यथा इह सुंसुमारपर्वते सर्वकामितं नाम पत्तनमस्ति; यो यदभिलष्य पतति, स तत्क्षणेनैव तत्प्राप्नोति' इति । ततो
न! क्व पनः स उद्देशः?' तेन कथितम-'यथाऽस्य सालतरुवरस्य वामपार्वेणेति। ततोऽलं अनेन तिर्यग्भावेन, एहि, विद्याधरप्रणिधानं कृत्वा तत्र निपतावः ।' प्रतिश्रुतं च मे इदं
बार लीलारति नामक विद्याधर मृगांकसेन नामक विद्याधर की चन्द्रलेखा नामक बहिन का अपहरण कर उसी के भय से उस स्थान पर आया। उसने उस तोते से कहा-"मैं इस पर्वत के लता-मण्डप में रुकता हूँ। यहाँ एक विद्याधर आयेगा । उसे मेरे विषय में मत बतलाना । वह चला जाय तब मुझे बतला देना । मैं आपका भी कुछ प्रत्युपकार करूँगा।" ऐसा करने पर आपने मुझे ठीक उपकृत किया'-ऐसा कहकर भयंकर किनारे की सीमा में स्थित लताकुंज में उतर गया। दूसरा भी (तोता भी) उसी स्थान पर भरंगी वृक्ष की शाखा में बने हुए घोंसले में बैठ गया। तभी आकर मृगांकसेन चला गया। इसी बीच हथिनियों से घिरा मैं उस स्थान पर आया । तब मुझे देखकर तोते ने विचार किया। मेरे इष्ट कार्य का यह अवसर है । तब छल की बहुलता से अपनी स्त्री से सलाह करते हुए, मुझे सुनाई पड़ जाय, इस प्रकार कहा, "सुन्दरि ! भगवान् वशिष्ठ महर्षि के पास मैंने सुना कि इस सुंसुमार पर्वत पर सर्वकामित नाम का पत्तन (गिरने का स्थान) है। जो जिसकी अभिलाषा कर वहां से गिरता है, वह उसी क्षण वही वस्तु प्राप्त कर लेता है। तब मैंने पूछा- भगवन् ! वह स्थान कहाँ है ?" उसने कहा, "इस सालवृक्ष के बायीं ओर है। अतः यह तिर्यंचगति व्यर्थ है, आओ हम दोनों विद्याधर होवें, ऐसा ध्यान करके वहां से कूदें।" पत्नी ने यह स्वीकार कर लिया। वे दोनों उस स्थान पर गये । ध्यान किया
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