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________________ ११० [ समराइचकहा य सो सुपनारगो नरगाओ उवट्टिऊण तत्थ चेव नयरे सोसम्मस्स निवपुरोहियस्स नन्दिवद्धणाभिहाणाए भारियाए कुच्छिसि पुत्तताए उववन्नो त्ति, जाओ य कालक्कमेणं, पइद्वावियं च से नामं जन्नदेवो, पत्तो य कुमारभावं । एत्यंतरम्मि य जाया मम तेण सह पीई सम्भावओ, तस्स उण कइयवेणं । तओ पुत्वभवन्मत्थकम्मदोसेणं उज्जयस्स वि अणुज्जुओ मम संपयामच्छरी वंचणाछलेण छिद्याइं गवेसिउमारद्धो । अलहमाणेण य परिचितियमणेण-न एसो एवं छलिउं पारियइ, ता एस एत्थ उवाओ। चंदणसत्थवाहगेहं मुसिऊण एयस्स गेहे रित्थं मुयामि, पच्छा य केणइ उवाएणं निवेइऊण राइणो संपयाओ भंसइस्सं ति । अणुचिट्ठियं च णेण जह चितियं । उवणेऊण य मे गेहे रित्थं भणियमणेण--- 'वयंस ! एयं पयत्तेण संगोवावेसु' त्ति । ए वि य अकालाणयणजायसंकेण अणिच्छमाणेणावि एयरस दक्खिण्णबहुलयाए संगोवियं ति । पक्त्तो य नयरे जणरवो, जहा मुटुं चंदणसत्थवाहगेहं ति। तओ आसंकियं मे हिया एणं-नणमेयं एवं भविस्सइ त्ति । गओ जन्नदेवसमीवं, पुच्छिओ य सो मए – 'कहमेयं ववत्थियं हि । तेण भणियं-'मा अन्नहा समत्थेहि। तायभएण मए एयं प्राप्तश्च बालभावम् । अत्रान्तरे च स शुकनारको नरकादुद्वत्त्य तत्रैव नगरे सोमशर्मणो नपपुरोहितस्य नन्दिवर्धनाभिधानायाः भार्यायाः कुक्षौ पुत्रत्वेनोपपन्न इति, जातश्च कालक्रमेण । प्रतिष्ठा च तस्य नाम यज्ञदेवः। प्राप्तश्च कुमारभावम् । अत्रान्तर च जाता मम तेन सह प्रीतिः सद्भावतः, तस्य पुनः कैतवन । ततः पूर्वभवाभ्यस्तकर्मदोषण ऋजक स्यापि अनजको मम सम्पन्मत्सरी वञ्चनाच्छलेन छिद्राणि गवेषयितुमारब्धः। अलभमानेन च परिचिन्तितमनेन-न एष एवं छलितुं पार्यते, तत एषोऽत्र उपायः । चन्दनसार्थवाहगृहं मुपित्वा एतस्य गृहे रिक्थं मुञ्चामि, पश्चात्केनचिदुपायेन निवेद्य राज्ञः सम्पदः भ्रंशयिष्ये इति । अनुष्ठितं च तेन यथाचिन्तितम् । उपनीय च मे गेहे रिक्थं भणितमनेन वयस्य ! एतत् प्रयत्नेन संगोपये ति। मयापि च अकालानयनजातशङ्कन अनिच्छताऽपि एतस्य दाक्षिण्यबहुलतया संगापितमिति । प्रवृत्तश्च नगरे जनरवः, यथा मुष्ट चन्दनसार्थवाहगेहमिति । तत आशङ्कितं मे हृदयेन-नूनमेतदेवं भवि ष्यतोति । गतो यज्ञदेवसमोपम्, पृष्टश्च स मया-'कथमेतद् व्यवस्थितमिति । तेन भणितम्-'मा अन्यथा समर्थय, तातभयेन मया एतद् भवतः बीच में वह नरकगामी तोता नरक से निकलकर उसी नगर में सोमशर्मा नाम के राजा के पुरोहित की नन्दिवर्धना नामक पत्नी के गर्भ में पुत्र रूप में आया और कालक्रम से उत्पन्न हुआ। उसका नाम यज्ञदेव रखा गया। वह कुमारावस्था को प्राप्त हुआ। इसी बीच सद्भाव के कारण मेरी उसके साथ प्रीति हो गयी। उसने धूर्तता के कारण मैत्री की । अनन्तर पूर्वभव के अभ्यस्त कर्मदोष से सरल के लिए भी कुटिल बनने वाले उसे मेरी सम्पत्ति से डाह हो गयी और उसने मुझे धोखा देने के लिए मेरे दोषों को ढूंढना प्रारम्भ कर दिया । कोई दोष न पाकर उसने सोचा-यह छला नहीं जा सकता है अत: इसका यह उपाय है । चन्दन व्यापारी के घर में चोरी कर इसके घर में चुराया हुआ धन रख देता हूँ, बाद में किसी उपाय से राजा से निवेदन कर सम्पत्ति का नाश करा दूंगा। उसने जैसा सोचा था, वही किया। मेरे घर धन लाकर इसने कहा, "मित्र ! इसे यत्नपूर्वक छिपात्रो।" असमय में लाने के कारण यद्यपि मुझे शंका हई तथापि उसकी चतुरई के कारण न चाहते हुए भी मैंने छुपा लिया। नगर में लोगों का शोर मचा कि वन्दन व्यापारी के घर चोरी हो गयी। तब मेरा हृदय आशंकित हुआ, निश्चित रूप से वह माल यही होगा । मैं यज्ञदत्त के पास गया और रससे पूछा, "यह कैसे हुआ ?' ''अन्यथा मत समझिए, पिता जी के भय के कारण मैंने इसे आपको समर्पित कर दिया है, दूसरे किसी कारण से नहीं ।" तब मेरी शंका Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001881
Book TitleSamraicch Kaha Part 1
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1993
Total Pages516
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & literature
File Size13 MB
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