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________________ तइओ भवो १७७ चेव ति। तओ सा एवं विचितिऊण अणुन्नविय जणणिजणए अणुन्नाया तेहिं आगया तं अन्नेसमाणी, जत्थ तुमं । दिट्ठो य अणाए। पेच्छिऊण निव्वुइपुरपट्ठियं तुमं भणियं च अणाए। अज्जउत्त, सोहणमणुचिट्ठियं तुमए । छिन्ना मोहवल्ली। अवलंबियं सप्पुरिसचरियं । समुत्तारिया अहं अप्पा य इमाओ भवसमुद्दाओ ति। आहेणंदिऊण पवन्ना पवज्ज अणंगदेवगुरुसमीवे । अइक्कतो कोइ कालो। निरइयारं सामण्णमणुवालिऊण तुमं कालक्कमेण मओ समाणो उववन्नो पणुवीससागरोवमाऊ गेवेज्जगसुरो त्ति । इयरो वि मंगलगो तमत्थं परिग्गहिय महासिलासंचओच्छाइयं च काऊण तम्ममत्तेण तत्थेव देसे कुणिमाहारेण किलेससंपाइयवित्ती अहाउयं पालिऊण मओ समाणो उववन्नो तमाभिहाणाए नरयपुढवीए वावीससागरोवमाऊ नारगो त्ति। तओ य महया परिकिलेसेण तमहाउयं पालिऊण उव्वट्टो समाणो एत्थेव विजए रट्ठबद्धणए गामे वेल्लियगस्स चंडालस्स गेहे छेलगताए उववन्नो ति । पत्तो य जोव्वणं। अन्नया य बहुछेलगमझगओ तओ रट्टबद्धणाओ जयत्थले निज्जमाणो पत्तो इमं निहाणगुद्देसं । समुप्पन्नं च से तमुद्देसमवलोइऊण पुव्वभवब्भासओ जाइस्सरणं । च एतदेव इति । ततः सा एवं विचिन्त्य अनुज्ञाप्य जननी--जनको अनुज्ञाता ताभ्याम्, आगता त्वामन्वेषमाणा यत्र त्वम् । दृष्टश्च अनया । प्रेक्ष्य निर्वतिपुरप्रस्थितं त्वां भणितं चानया। आर्यपुत्र ! शोभनमनुष्ठितं त्वया। छिन्ना मोहवल्ली। अवलम्बितं सत्पुरुषचरितम्। समुत्तारिताऽहम् मात्मा च अस्माद् भवसमुद्राद् इति । अभिनन्द्य प्रपन्ना प्रव्रज्याम् अनङ्गदेवगुरुसमीपे । अतिक्रान्तः कश्चित् कालः । निरतिचारं श्रामण्यमनुपाल्य त्वं कालक्रमेण मृतः सन् उपपन्नः पञ्चविंशतिसागरोपमायुप्रैवेयकसुर इति । इतरोऽपि मङ्गलकस्तमर्थं परिगृह्य महाशिलासंचयावच्छादितं च कृत्वा तन्ममत्वेन तत्रैव देशे कुणिमाहारेण क्लेशसम्पादितवृत्तिर्यथायुष्कं पालयित्वा मृत: सन् उपपन्न: तमाभिधानायां नरकपृथिव्यां द्वाविंशतिसागरोपमायुरिक इति । ततश्च महता परिक्लेशेन तद् यथायुष्क पालयित्वा उद्वत्तः सन् अत्रैव विजये राष्ट्रवर्धनके ग्रामे वेल्लितकस्य चाण्डालस्य गेहे छागकतया उपपन्न इति । प्राप्तश्च यौवनम् । अन्यदा च बहुछागमध्यगतः ततो राष्ट्रवर्धनाद जयस्थले नीयमानः प्राप्त इमं निधानकोद्देशम् । समुत्पन्नं च तस्य तमुद्देशमवलोक्य पूर्वभवाभ्या लोकों में सुख देने वाला है । ऐसा सोचकर उसने माता-पिता से अनुमति मांगी। माता-पिता दोनों ने अनुमति दे दी । वह आपको ढूढती हुई उस स्थान पर आयी, जहाँ तुम थे। इसने देखा । मोक्षरूपी नगर को प्रस्थान करते देखकर इसने कहा, "आर्यपुत्र ! आपने ठीक किया । मोहरूपी लता को तोड़ डाला। सत्पुरुषों के चरित्र का अवलम्बन किया । मैंने अपने आपको संसार रूपी समुद्र से पार कर लिया।" अभिनन्दन कर (वह) अनंगदेव गुरु के समीप दीक्षित हो गयी। कुछ समय बीत गया। अतिचार रहित श्रमणधर्म का पालन करते हुए तुम कालक्रम से मरण को प्राप्त हो गये और पच्चीस सागर आयु वाले ग्रैवेयक में देव हुए। दूसरा, मंगलक भी उस धन को लेकर, उसे बड़ी-बड़ी शिलाओं से ढककर, धन के प्रति मोह के कारण उसी स्थान पर अन्न के दानों से क्लेशपूर्वक जीविकोपार्जन करता हुआ आयु पूरी कर, मरकर तमा नामक नरक की पृथ्वी में बाईस सागर की आयु वाला नारकी हुआ। तदनन्तर बड़े क्लेश से वहाँ की आयु पूरी कर वहां से निकलकर इसी देश के राष्ट्रवर्धनक नामक ग्राम में वेल्लितक चाण्डाल के घर बकरे के रूप में उत्पन्न हुआ । यौवनावस्था को प्राप्त हुआ। एक बार बहुत से बकरों के साथ उस राष्ट्रवर्धनक ग्राम से जयस्थल को ले जाये जाते हुए इस गड़े हुए धन के स्थान पर आया। उस स्थान को देखकर पूर्वजन्म के अभ्यास से जातिस्मरण हो गया । तब लोभवश वेल्लितक द्वारा बार-बार खींचने For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.001881
Book TitleSamraicch Kaha Part 1
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1993
Total Pages516
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & literature
File Size13 MB
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