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________________ [ समराइच्च कहा तओ लोहदोसेण वियड्डो वेल्लियगस्स नेच्छइ तओ उद्देसाओ अन्नत्थमभिगन्तुं चोइज्जतो वि पुणो पुणो नियत्तइति । कोहाभिभूएणं वावाइओ वेल्लियगेण । उप्पन्नो तत्थैव निहाणगुद्देसे मूसओ । परिग्गहियं च णेण ओहसन्नाए तं दव्वं । अणुवालियं कंचि कालं । अन्नया सोमचंडो नाम जूयारिओ कहचि परिभमंतो आगओ तमुद्देसं । उवविट्ठो सालपायवसमीवे । तओ अन्नाणलोहदोसेण तस्स पुरओ सामरिसमिव परिभमिउमाढतो । वावाइओ य तेणं । समुत्पन्नो य तस्सेव पणट्टसवणनासिगाए दुग्गलिंगा'भिहाणाए भारियाए कुच्छिसि पुत्तत्ताए ति । जाओ कालक्कमेणं । पट्टावियं च से नामं रुद्दचंडोति । पत्तो अणेगजणसंतावगारयं विसपायवो व्व नोव्वणं । असमंजसं च ववहरि - उमारो | अन्नया गहिओ खत्तमुहे । उवणीओ राइणो समरभासुरस्स । समाणत्तो बज्यो । भिन्नो सूलियाए आरक्यिनरेहिं । मओ य समाणी समुप्पन्नो सक्कराभिहाणाए नरयपुढवीए किचनतिसागरोवमाऊ नारगो त्ति । तओ अहाउयमणुबालिऊण उब्वट्टो समाणो समुत्पन्नो एत्थेव विजए एत्थेव लच्छिनिलए असोगदत्तस्स सेट्ठिस्स सुहंकराए भारियाए कुच्छिसि इत्थिगत्ताए त्ति । जाया १७८ सतः जातिस्मरणम् । ततो लोभदोषेण विकृष्टो वेल्लितकस्य नेच्छति तत उद्देशाद् अन्यत्राऽभिगन्तुम्, चोद्यमानोऽपि पुनः पुनः निवर्तते इति । क्रोधाभिभूतेन व्यापादितो वेल्लितकेन । उत्पन्नस्तत्रैव निधानकोद्देशे मूषकः । परिगृहीतं चानेन ओघसंज्ञया तद् द्रव्यम् । अनुपालितं कञ्चित् कालम् । अन्यदा सोमचण्डो नाम द्यूताचार्यः कथञ्चित् परिभ्रमन् आगतस्तमुद्देशम् । उपविष्टः शालपादपसमीपे । ततोऽज्ञानलोभदोषेण तस्य पुरतः सामर्षमिव परिभ्रमितुमारब्धः । व्यापादितश्च तेन । समुत्पन्नश्च तस्यैव प्रनष्टश्रवणनासिकाया दुर्गिलिकाऽभिधानाया भार्यायाः कुक्षौ पुत्रतया इति । जातः कालक्रमेण । प्रतिष्ठापितं च तस्य नाम रुद्रचण्ड इति । प्राप्तोऽनेकजन सन्तापकारकं विषपादप इव यौवनम् । असमञ्जसं च व्यवहर्तुमारब्धः । अन्यदा गृहीतः खात्रमुखे । उपनीतो राज्ञः समरभासुरस्य । समाज्ञप्तो बध्यः । भिन्नः शूलिकया आरक्षितनरैः । मृतः सन् समुत्पन्नः शर्कराभिधानायां नरकपृथिव्यां किंचिदून त्रिसागरोपमायुर्नारिक इति, ततः यथायुष्कमनुपालय उद्वृत्तः सन् समुत्पन्नः अत्रैव विजये, अत्रैव लक्ष्मीनिलये अशोकदत्तस्य श्रेष्ठिनः शुभङ्कराया भार्यायाः " पर भी उस स्थान से दूसरी जगह जाने को तैयार नहीं हुआ । हाँकने पर भी बार-बार लौट आता था । इस कारण क्रुद्ध होकर वेल्लितक ने मार डाला । (अनन्तर) उसी धन वाले स्थान पर चूहा हुआ । लोभवश इसने वह धन ले लिया । कुछ समय तक उसकी रक्षा की। एक बार सोमचण्ड नामक द्यूताचार्य कहीं से घूमता हुआ उस स्थान पर आया । (वह) शालवृक्ष के नीचे बैठ गया । तब अज्ञान तथा लोभ के दोष से ( इसने ) उसी के सामने ईष्र्यावश घूमना शुरू कर दिया । उसने ( द्यूताचार्य ने) मार दिया । उसी की नाक-कानविहीन दुर्गिलिका नामक स्त्री के गर्भ में पुत्र के रूप में आया । कालक्रम से जन्म हुआ । उसका नाम रुद्रचण्ड रखा गया । अनेक लोगों को दु:ख पहुँचाने वाले विषवृक्ष के समान यौवनावस्था को प्राप्त हुआ । उसने अनुचित व्यवहार करना प्रारम्भ कर दिया । एक बार जंगल में पकड़ा गया । राजा समरभासुर के पास ले जाया गया । ( राजा ने) वध की आज्ञा दे दी । सिपाहियों ने शूली पर चढ़ाकर मार डाला । मरकर वह शर्कराप्रभा नामक नरक की पृथ्वी में कुछ कम तीन सागर की आयुवाला नारकी हुआ। वहाँ पर आयु पूर्णकर निकलकर इसी देश के इसी लक्ष्मीनिलय में अशोकदत्त सेठ की शुभंकरा पत्नी के गर्भ में स्त्री के रूप में आया । उचित समय पर (कन्या) उत्पन्न हुई । उसका नाम श्रीदेवी १. दुग्गुल्लिया - ख २. संधिमूहे- ख । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001881
Book TitleSamraicch Kaha Part 1
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1993
Total Pages516
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & literature
File Size13 MB
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