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________________ पठमो भवो] वित्थिण्णं गिरिनइपुलिणं। एत्थंतरम्मि य मुणियरिंदागमणेणं, पफुल्लवयणपंकएणं राइणो आगमणमग्गिसम्मतावसस्स निवेइयं मणिकुमारएणं । तओ अग्गिसम्मतावसेण कोहजलणपज्जलियसरीरेणं सद्दाविओ कुलवई, लंघिऊण जहोचियमवयारं निठुर भणिओ-भो ! भो ! न पारेमि एयस्स अकारणवेरिणो नरिंदाहमस्स मुहमवलोइउं, ताजं किंचि भणिय बाहिरओ चेव विसज्जेहि एयं । कुलवइणा चितियं- अवहरिओ खु एसो कुसाएहि। तओ जुत्तं चैव ताव पच्चग्गाकसायसियचित्तस्स नरिंददसणं परिहरिउ ति गओ नराहिवसम्मुहं थेवं भूमि कुलवई। दिट्ठो य णेण परिमिलाणदेहो सपरिवारो राया। पणमिओ य सविणयं सपरिवारेणं राइणा। अहिणंदिओ य आसीसाए कुलवइणा, भणिओ य जेण-महाराय ! एहि, एपाय चंपगवीहियाए उपविसम्ह । राइणा भणियं--'जं भयवं आणवेई' । गया चंपगवीहियं । उवविट्ठो विमलसिलानिविट्ठे कुसासणे कुलवई, पुरओ से धरणीए चेव सपरिवारो राया। तओ कुलवइणा भणियं-महाराय ! तपोवनासन्नं विस्तीर्ण गिरिनदीपुलिनम्। ___अत्रान्तरे च ज्ञातनरेन्द्राऽऽगमनेन, प्रफुल्लवदनपङ्कजेन राज्ञ आगमनम्-अग्निशर्मतापसाय निवेदितं मुनिकुमारकेण । ततोऽग्निशर्मतापसेन क्रोधज्वलनप्रज्वलितशरीरेण शब्दायितः कुलपतिः, लंधित्वा यथोचितम् उपचारं निष्ठरं भणित:-भो भो ! न पारयामि (शक्नोमि) एतस्य अकारणवैरिणो नरेन्द्राधमस्य मुखमवलोकितुम् । ततो यत् किञ्चिद् भणित्वा बहिष्ट इव विसर्जय एनम् । कुलपतिना चिन्तितम्---अपहृतः खलु एष कषायैः । ततो युक्तमेव तावत् प्रत्यग्रकषायदूषित चित्तस्य नरेन्द्रदर्शनं परिहतु मिति गतो नराधिपसम्मुखं स्तोकां भूमि कुलपतिः। दृष्टश्च तेन परिम्लानदेहः सपरिवारो राजा । प्रणतश्च सविनयं सपरिवारेण राज्ञा। अभि. नन्दितश्च आशिषा कुलपतिना, भणितश्च तेन-महाराज ! एहि, एतस्यां चम्पकवीथिकायाम उपविशामः। राज्ञा भणितम्-'यद् भगवन् आज्ञापयति' । गतः चम्पकवीथिकाम् । उपविष्ट: विमल शिलानिविष्ट कुशासने कुलपतिः, पुरतश्च तस्य धरिण्यामेव सपरिवारो राजा । ततः कुलपतिना वह पैदल ही अग्निशर्मा को आश्वस्त करने के लिए तपोवन में गया । कलहंसों से घिरे हुए राजहंस के समान उसे तपोवन के समीप विस्तृत पर्वतीय नदी का तट मिला। इसी बीच राजा के आगमन को जानकर जिसका मुखकमल खिल गया था, ऐसे मुनिकुमार ने अग्निशर्मा तापस से राजा के आने का समाचार निवेदन किया। क्रोध की ज्वाला से जिनका शरीर जल रहा था, ऐसे अग्निशर्मा तापस ने यथायोग्य आदर-सत्कार का उल्लंघन कर कुलपति को बुलाकर निष्ठुरतापूर्वक कहा, "अरे ! अरे ! अकारण वैर करनेवाले इस पापी राजा का मैं मुंह नहीं देख सकता । अतः जो कुछ भी कहकर इसको बाहर से ही विदा कर दो।" कुलपति ने विचार किया-इसका कषायों ने अपहरण कर लिया । अतः तत्काल उत्पन्न हुई कषाय से जिसका चित्त दूषित है, ऐसे इसके दर्शन से राजा को बचाना चाहिए । कुलपति थोड़ी दूर जाकर राजा के समीप पहुंचे। ___ उन्होंने कुम्हलाये हुए शरीरवाले राजा को सपरिवार देखा । राजा ने सपरिवार विनयपूर्वक प्रणाम किया। कुलपति ने आशीर्वाद देकर अभिनन्दन किया। उन्होंने कहा, “महाराज ! आइए, हम सब इस चम्पकवीथिका में बैठे।" राजा ने कहा, "जैसी महाराज की आज्ञा।" (सभी) चम्पकवीथी में गये । निर्मल शिला कुशासन पर कुलपति बैठे। उनके सामने पृथ्वी पर ही सपरिवार राजा बैठा । तब कुलपति ने कहा, "महाराज | Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001881
Book TitleSamraicch Kaha Part 1
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1993
Total Pages516
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & literature
File Size13 MB
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