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________________ [ समराइच्चकहा एयारिसा एत्थ लोया मोत्तण नरिंदगुणसेणं ति। सोमदेवेण भणियं-भयवं ! किं कयं नरिंदगुणसेणेण ? धम्मपरो खु सो राया सुणीयइ त्ति । अग्गिसम्मतावसेण भणियं-को अन्नो अधम्मपरो, जो विणिज्जियनियमंडलो वि तवस्सिजणं पसज्झं वावाएइ त्ति। सोमदेवेण चितियं-परिकुविओ खु एसो तावसो। जहा य दीहर-कुसरइयसत्थरोवविट्रो लक्खिज्जइ, तहा नरिंदनिव्वेएणं चेवाणेण पडिवन्नमणसणं भवे। पुच्छिज्जतो य एसो असोयव्वं सामिपरिवायं गेण्हइ। ता अन्नओ चेव उवलहिय वुत्तंतं सामिणो निवेएमि त्ति। पणमिऊण तं निग्गओ सोमदेवो । पुच्छिओ य णेणं कुसकुसुमवावडग्गहत्थो, अभिसेयकामो, गिरिनइं समोयरतो तावसो । भयवं ! कि पडिवन्नं अग्गिसम्मतावसेण । तेण वि य वाहजलभरियमन्थरनयणेणं सवित्थरमाइक्खियं तयणढाणं । गओ सोमदेवो, निवेइयं च णेणं जहावलद्धं राइणो । तओ राया अहिययरजायनिव्वेओ, चिताभारनिस्सहं अंगं धरमाणो, सयलंतेउरप्पहाणपरियणपरिवरिओ पाइक्को चेव अग्गिसम्मपच्चायणनिमित्तं पयट्टो तवोवणं । संपत्तो रायहंसो व्व कलहंसियपरिवारिओ' तवोवणासन्नं तापसेन भणितम् -सत्यमेतत्, न एतादृशा अत्र लोका मुक्त्वा नरेन्द्रगुणसेनम् इति । सोमदेवेन भणितम-भगवन् ! किं कृतं नरेन्द्रगुणसेन ? धर्मपरः खलु स राजाश्रयते इति । अग्निशर्मतापसेन भणितम्-कोऽन्योऽधर्मपरः यो विनिर्जित निजमण्डलोऽपि तपस्विजनं प्रसह्य व्यापादयति इति । . सोमदेवेन चिन्तितम्--परिकुपितः खलु एष तापसः । यथा च दीर्घकुशरचितस्रस्तरोपविष्टो लक्ष्यते, तथा नरेन्द्रनिर्वेदेन एव अनेन प्रतिपन्न अनशनं भवेत् पृच्छयमानश्च एष अश्रोतव्यं स्वामिपरिवादं गृह्णाति । ततोऽन्यत एव उपलभ्य वृत्तान्तं स्वामिने निवेदयामि इति । प्रणम्य तं निर्गत: सोमदेवः । पृष्टश्च अनेन कुशकुसुम व्यापृताग्रहस्तः, अभिषेककामः गिरिनदीं समवतरन् तापसः। भगवन् ! किं प्रतिपन्नम् अग्निशर्मतापसेन ? तेनापि च वाष्पजलभृतमन्थरनयनेन सवि. स्तरम-आख्यातं तदनुष्ठानम्। गतः सोमदेवः, निवेदितं च तेन यथोपलब्धं राज्ञे। ततो राजा अधिकतरजातनिर्वेदः, चिन्ताभारनिस्सहम् अङ्गं धरन् सकलान्तपुर प्रधानपरिजनपरिवारितः पदातिरेव अग्निशर्मप्रत्यायनिमित्तं प्रवृत्तस्तपोवनम् । सम्प्राप्तो राजहंस इव कलहंसिका परिवारितः शत्रु-मित्र दोनों में समदृष्टि रखनेवाले, तृण, मणि, मुक्ता और स्वर्ण को समान रूप से देखनेवाले, संसार-सागर को पार करने के लिए जहाज के समान आप जैसों को भी आहार मात्र न दे सकें।" अग्निशर्मा तापस ने कहा, “यह सत्य है, यहां पर राजा गुणसेन को छोड़कर ऐसे लोग नहीं हैं।" सोमदेव ने कहा, "भगवन् ! गुणसेन राजा ने क्या किया? वह तो सुना जाता है बड़े धर्मपरायण हैं !" अग्निशर्मा तापस ने कहा, "उससे अधिक कौन अधामिक हो सकता है जो अपने मण्डल को जीतकर भी तपस्विजनों को जान-बूझकर पीड़ा पहुंचाता है।" - सोमदेव ने सोचा, 'यह तापस क्रुद्ध है, चूंकि बड़ी-बड़ी कुशाओं द्वारा बनाये गये बिस्तर पर यह बैठा दिखाई दे रहा है । अतः राजा के योग से दुःख के कारण इसने अनशन धारण कर लिया होगा। पूछे जाने पर यह स्वामी की न सुनने योग्य निन्दा करता है । अतः दूसरी जगह से वृत्तान्त प्राप्त कर स्वामी से निवेदन करूंगा।' अग्निशर्मा को प्रणाम कर सोमदेव निकल गया। फूल और कुश जिसके हाथ में थे, जो स्नान करने की इच्छा कर पर्वतीय नदी में उतर रहा था, ऐसे एक तापस से सोमदेव ने पूछा, "भगवन् ! अग्निशर्मा तापस ने क्या संकल्प किया ?" उसने भी आँसुओं से भरे मन्थर नेत्रों से विस्तारपूर्वक उनके अनुष्ठान को कह सुनाया। सोमदेव चला गया। उसने यथाप्राप्त (जैसा ज्ञात हुआ था) वृत्तान्त को राजा से निवेदन किया। तब राजा बहुत अधिक दुःखी हुआ। चिन्ता के भार से असहनीय अंग को धारण किये हुए, समस्त अन्तःपुर तथा प्रधान सेवकों से घिरा हुआ १. कलकलहंसियपरिवाओ। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001881
Book TitleSamraicch Kaha Part 1
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1993
Total Pages516
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & literature
File Size13 MB
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