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________________ पढौ भवो ] ३६. विन्नायपरियणभवो चेव गवेसिऊण तस्स महातवस्तिस्स वृत्तंत किं तेण ववसियं ? 'ति लहूंनिवेहि, आसंकs for मे हिययं । एवं च समाणत्तो सोमदेवपुरोहिओ गओ तवोवणं । दिट्ठो तेण बहुतवस्सिजण परिवारिओ गिरिणई' तडासन्ननिविट्ठमंडवगओ, दोहरकुसरइयसत्थरोवविट्टो, अमरिसवसाढत्तरायकहावावडो अग्गिसम्तावसो त्ति । पणमिओ विणओणयउत्तिमंगेणं सोमदेवेणं । तेणं चिय आसीसापुव्वयं' 'सागयं' ति भणिऊण 'उवविससु' त्ति आइट्ठो । उवविट्ठो सोमदेवपुरोहिओ । भणियं च णेणे - भयवं ! अइपरिवखीणदेहो लक्खिज्जसि, तार किमेयं ति ? अग्गिसम्मतावसेण भणियं - निरीहाणं अन्नओ समासाइयवित्तीणं श्रंगं चेव किसतवस्सीणं ति । सोमदेवेण भणियं - एवं एयं । निरीहा चैव तवस्सिणो हवंति, किं तु धण-धन्न- हिरण्णसुवण-मणि- मोत्तिय पवाल- दुप्पय- चउप्पएसु, न उण धम्मकाओवयारगे आहारमेत्ते वि न य ईइसा एत्थ लोया, जे तुमए वि सरिसाणं मुत्तिमग्गपवन्नाणं, अविसेससत्तुमित्ताणं, समतणमणिमुत्त कंचगाणं संसारजल हिपोयाणं आहारमेत्तं पि न देति त्ति। अग्गिसम्मतावसेण भणियं - सच्चमेयं, नः देवपुरोहित । ममाविज्ञातपरिजनभाव एव गवेषयित्वा तस्य महातपस्विनो वृत्तान्तम् 'किं तेन व्यवसितम् ?' इति लघु निवेदय, आशङ्कते इव मम हृदयम् । एवं च समाज्ञप्तः सोमदेवपुरोहितो गतस्तपोवनम् । दृष्टस्तेन बहुतपस्विजनपरिवारितः, गिरिनदीतटाऽऽसन्ननिविष्टमण्डपगतः, दीर्घकुशरचितस्रस्तरोपविष्टः, अमर्षवशाऽऽरब्ध राजकथा व्यापृतः अग्निशर्मतापस इति । प्रणतः विनयावनतोत्तमाङ्गेन सोमदेवेन । तेन एव आशी: पूर्वकम् 'स्वागतम्' इति भणित्वा 'उपविश' इति आदिष्टः । उपविष्टः सोमदेवपुरोहितः । भणितं चानेन - भगवन् ! अतिपरिक्षीणदेहो लक्ष्यसे, ततः किमेतद् इति ? अग्निशर्मतापसेन भणितम् - निरीहाणाम् । अन्यतः समासादितवृत्तीनां - अङ्गमेव कृशं तपस्विनाम् इति । सोमदेवेन भणितम् - एवमेतत् । निरीहा एव तपस्विनो भवन्ति, किन्तु धनभ धान्य- हिरण्य- सुवर्ण-मणि- मौक्तिक प्रवाल- द्विपद- चतुष्पदेषु, न पुनः धर्मकायोपकारके अहारमात्रेऽपि । न च ईदृशा अत्र लोकाः, ये युष्माकमपि सदृशानाम् मुक्तिमार्ग प्रपन्नाम्, अविशेषशत्रु मित्राणाम्) समतृणमणिमुक्ताकाञ्चनानाम्, संसारजलधिपोतानाम् आहारमात्रमपि न ददति इति। अग्निशर्म- सोमदेव पुरोहित, जाओ 'मेरे आदमी हैं' यह बिना बतलाये ही उन महातपस्वी को खोजकर उनका हाल जानकर 'उन्होंने क्या किया ?' यह शीघ्रता से निवेदन करो। मेरा हृदय आशंकित सा हो रहा है ।" इस प्रकार की आज्ञा प्राप्त हुआ वह सोमदेव पुरोहित तपोवन की ओर चला गया। उसने बहुत से तपस्विजनों से घिरे हुए, पर्वतीय नदी के तट के समीप मण्डप में स्थित, बड़ी-बड़ी कुशाओं की शैयासन पर बैठे हुए, क्रोधवश राजा द्वारा आरम् घटनाक्रम में चित्त लगाये हुए अग्निशर्मा तापस को देखा। विनय से सिर झुकाकर सोमदेव ने प्रणाम किया । उन्होंने भी आशीर्वाद देकर, 'स्वागत है' कहकर 'बैठो' ऐसा आदेश दिया । सोमदेव पुरोहित बैठ गया । पुरोहित ने कहा, "भगवन्! आपकी देह बहुत क्षीण दिखाई दे रही है, अतः यह क्या है ?" अग्निशर्मा तापस ने कहा, “जो निरभिलाषी हैं, दूसरे पर जिनकी जीविका चलती है ऐसे तपस्वियों का शरीर दुर्बल होता ही है ।" सोमदेव ने कहा, "ठीक है, तपस्विजन निरभिलाषी ही होते हैं किन्तु धन, धान्य,, सोना, चांदी, मणि, मुक्ता, मूंगा, द्विपद और चतुष्पद प्राणियों में ही तपस्वी लोग निरभिलाषी होते हैं, न कि शरीर धर्म और शरीर के उपकारक आहारमात्र में । और फिर यहाँ पर ऐसे लोग तो नहीं हैं जो मुक्तिमार्ग को प्राप्त, १. गिरिनई, २. आसीसपुव्वयं, ३. णेणं, ४. किसत्तं । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001881
Book TitleSamraicch Kaha Part 1
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1993
Total Pages516
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & literature
File Size13 MB
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