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________________ ३६८ [समराइचकहा साहियं विलासवईए। भणियं च तीए-अज्जउत्त, जं वो रोयइ त्ति । पुच्छिया तावसी । अणमयं तोए । कओ भिन्नपोयद्धओ। गया कइवि' दियहा। एत्थंतरम्मि समागया गालवाहियाए निज्जामया । दिट्ठा य ते मए । भणियं च तेहि-भो महापुरिस, महाकडाहवासिणा साणुदेवसत्थवाहेण मलयविसयपत्थिएणं दठण भिन्नपोयद्धयं पेसिया अम्हे । ता एहि गच्छम्ह । तओ भए भणियं-भद्दा, जायादुइओ' अहं । तेहि भणियं-न दोसो सो, सा वि पयट्टउ ति। तो आपुच्छिऊण तावसजणं अणुगम्ममाणो य तेण गओ जलनिहितडं। पणमिऊण तावसे जायादुइओ आरूढो गालवाहियं । पत्तो य जाणवत्तं बहमन्तिओ य सत्थवाहपुत्तेण । तओ मए 'इत्थियासहावओ घोरयाए महोयहिस्स पढममिलियाए विब्भमेण मा से पमाओ पडरयणम्मि भविस्सइ' त्ति चितिऊण गहियं पडरयणमप्पणा। अइक्कंता कइवि वासरा । अन्नया य जामावसेसाए रयणीए पासवणनिमित्तं उट्टिओ अहं सत्यवाहपत्तो य। एत्थंरम्मि चितियं सत्थवाहपुत्तेण-इमं ईइसं इत्थियारयणं, सव्वावराहच्छाइणी य सव्वरी; दुल्लहो य ईइसो अवसरो। ता घत्तिऊण महोयहिम्मि एवं अंगीकरेमि भयणमंजसं इत्थीरयणं ति कथितं विलासवत्यै । भणितं च तया-आर्यपुत्र ! यद् वो रोचते इति । पृष्ठा तापसी । अनुमतं तया। कृतः भिन्नपोतध्वजः । गता कत्यपि दिवसाः । अत्रान्तरे समागता लघुनौकाया निर्यामकाः। दृष्टाश्च ते मया । भणितं च तैः-भो महापुरुष ! महाकटाहवासिना सानुदेवसार्थवाहेन मलयविषयप्रस्थितेन दृष्ट्वा भिन्न पोतध्वज प्रेषिता वयम् । तत एहि, गच्छामः । ततो मया भणितम् - भद्रा ! जायाद्वितीयोऽहम् । तैर्भणितम्-न दोषः सः, साऽपि प्रवर्ततामिति । तत आपच्छ्य तापसजनमनुगम्यमानश्च तेन गतो जलनिधितटम् । प्रणम्य तापसान् जायाद्वितीय आरूढो लघुनावम् । प्राप्तश्च यानपात्रं बहुमानितश्च सार्थवाहपुत्रेण । ततो मया 'स्त्रीस्वभावतो घोरतया महोदधेः प्रथम मिलिताया विभ्रमेण मा तस्याः प्रमाव: पटरत्ने भविष्यति' इति चिन्तयित्वा गृहीतं पटरत्नमात्मना । अतिक्रान्ता: कत्यपि वासराः। अन्यदा च यामावशेषायां रजन्यां प्रस्रवणनिमित्त. मुत्थितोऽहं सार्थवाहपुत्रश्च । अत्रान्तरे चिन्तितं सार्थवाहपुत्रेण-इदमोदशं स्त्रीरत्नम, सर्वापराधच्छादनी च शर्वरी, दुर्लभश्च ईदृशोऽवसरः। ततः क्षिप्त्वा महोदधावेतमङ्गोकरोमि मदनमञ्जषां अपने देश चले' विलासवती से कहा । उसने कहा- -'आर्यपुत्र ! जैसा आपको अच्छा लगे ।' तापसी से पूछा। उसने अनुमति दे दी। टूटे हुए जहाज को बनाया। कुछ दिन बीत गये। इसी बीच छोटी नाव के चलाने वाले आये। वे मुझे दिखाई दिये। उन्होंने कहा---'हे महापुरुष ! महाकटाह द्वीप के निवासी सानुदेव नामक व्यापारी ने जो कि मलयदेश की ओर जा रहा था, टूटे जहाज को देखकर हम लोगों को भेजा। तो आओ, चलें ।' तब मैंने कहा-'भद्रो !मेरे साथ स्त्री है। उन्होंने कहा---'इसमें कोई दोष नहीं, वह भी चले। तब तापसियों से पूछकर समुद्र के तट पर आया। तापस भी साथ में आये । तापसों को प्रणाम कर पत्नी के साथ मैं छोटी-सी नाव पर सवार हो गया। जहाज पर पहुँचा। सार्थवाहपुत्र (वणिकपुत्र) ने अत्यधिक सत्कार किया । तब मैंने स्त्रीस्वभाव होने, समुद्र के भयंकर होने तथा प्रथम प्राप्ति से भ्रम होने के कारण उसका वस्त्ररत्न के विषय में प्रमाद न हो, ऐसा सोचकर वस्त्ररत्न को स्वयं ले लिया । कुछ दिन बीत गये । एक बार रात्रि के प्रहरमात्र शेष रह जाने पर मैं और वणिकपुत्र दोनों पेशाब के लिए उठे। इसी बीच सार्थवाहपुत्र वणिकपुत्र) ने सोचा यह इस प्रकार की स्त्रीरत्न है और समस्त अपराधों को ढकनेवाली रात्रि है तथा ऐसा अवसर दुर्लभ है । अतः १. कवइय-ख, २. जायादुतीमो-ख, ३. पढम मुणि याइ-ख, ४. मा से विभमेण न पडरयणं भबिस्सइ-क । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001881
Book TitleSamraicch Kaha Part 1
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1993
Total Pages516
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & literature
File Size13 MB
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