SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 455
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ पंचमो भयो ] ३६७ ए भणियाविन विरमर कुसुमोच्चयस्स । तओ मए चितियं- 'नयणमोहणपडपाउरणेण विप्पभेमि एवं' ति समीवसंठिएणं चैव अपेच्छमाणीए पाउओ पडो । पुलोइयं च तीए, न दिट्ठो अहं । ओ' असंभवेण गमवियप्पस्स 'हा अज्जउत्त' त्ति भणमाणी निवडिया धरणिवट्टे । तओ मए 'हा किमेयमणुचिट्ठियं' ति चितिऊण मोतूण तं पडं कुमुयालयाभिहाणाओ विहंगगण कुलहराओ घेत्तण भणिपत्तं सोविऊण निच्छिदं पुडयं तं सलिलपुण्णं करिय समागओ हुलियं । परिसिता य जलेण सिमासासिया एसा । भणियं च तीए- 'अज्जउत्त, किमेयं' ति । मए भणियं किं तयं' । तीए भणियंएहि चैव न दिट्ठो मए तुमं ति, एहि चेव दिट्ठो, ता किसेयं ति । मए भणियं - 'न याणामो' त्ति | तीए भणियं - हा कहं न याणासि । समुत्पन्नं मे सज्झसं, ता साहेहि परमत्थं ति । तओ मए 'कायराणि इथिया हिमाणि मा अन्नहा संभावइस्सइ'त्ति चितिऊण साहिओ पडरयणवत्तंतो । विन्नासिओ य तीए, उवलद्धपच्चयाए य गहिओ पडो । एवं च वड्ढमाणाणुरायाण अइक्कंतो कोइ कालो । जाया य मे चिंता । 'गच्छामो सएस' इति मया भणिताऽपि न विरमति कुसुमोच्चयात् । ततो मया चिन्तितम् -' नयनमोहनपटप्रावरणेन विप्रलम्भयामि एताम्' इति समीपस्थितेनैव अप्रेक्षमाणायां प्रावृतः पटः । प्रलोकितं च तया, न दृष्टोऽहम् । ततोऽसम्भवेन गमनविकल्पस्य ' हा आर्यपुत्र' ! इति भणन्ती निपतिता धरणीपृष्ठे । ततो मया 'हाकिमेतदनुष्ठितम्' इति चिन्तयित्वा मुक्त्वा तं पटं कुमुदालयाभिधानाद् विहंङ्गगणकुलगृहाद् (सरसः) गृहीत्वा बिसिनीपत्रं स्यूत्वा निश्छिद्रपुटकं तं सलिलपूर्ण कृत्वा समागतः शीघ्रम् । परिषिक्ता च जलेन समाश्वासितैषा । भणितं च तया- 'आर्यपुत्र ! किमेतद्' इति । मया भणितम् - किं तद् । तया भणितम् - इदानीमेव न दृष्टो मया मया त्वमिति इदानीमेव दृष्टः, ततः किमेतदिति । मया भणितम् -' न जानीमः' इति । तया भणितम् - हा कथं न जानासि ? समुत्पन्न मे साध्वसम्, ततः कथय परमार्थमिति । ततो मया 'कातराणि स्त्रीहृदयानि माऽन्यथा सम्भावयिष्यति' इति चिन्तयित्वा कथितः पटरत्नवृत्तान्तः । विन्यासितश्च तथा उपलब्धप्रत्ययया च गृहीतः पटः । 1 1 एवं च वर्धमानानुरागयोरतिक्रान्तः कोऽपि कालः । जाता च मे चिन्ता । 'गच्छाव स्वदेशम्' हो रही थी । तब मैंने सोचा 'नयनमोहन वस्त्र आवरण से इसे हरता हूँ ।' ऐसा सोचकर समीप में स्थित रहने पर भी उसको न दिखाई देते हुए वस्त्र को ढक लिया । उसने देखा किन्तु में दिखाई नहीं दिया। तब जाने का संकल्प असम्भव होने के कारण - 'हाय आर्यपुत्र !' ऐसा कहती ई धरती पर गिर पड़ी। तब 'हाय' यह क्या किया ?' ऐसा सोचकर उस वस्त्र को छोड़कर कुमुदालय नाम के पक्षियों के कुलगृह (तालाब) से जल लेकर कमलिनी के पत्तों को सीकर, बिना छेद का दोना बनाकर उसे जल से भर शीघ्र आया। जल सींचने पर यह आश्वस्त हुई । उसने कहा- 'आर्यपुत्र ! यह क्या ? ' मैंने कहा- 'वह क्या ?' उसने कहा -: अभी-अभी तुम मुझे दिखाई नहीं दिये थे, अब दिखाई पड़ गये, अत: यह क्या है ?' मैंने कहा--'नहीं जानता हूँ ।' उसने कहा - 'हाय, कैसे नहीं जानते हो ? मुझे घबराहट हो रही है अत: सही बात कहो' । तब मैंने स्त्रियों के हृदय डरपोक होते हैं, अन्यथा न समझ ले' - ऐसा सोचकर वस्त्र रत्न का वृत्तान्त कह दिया। उसने धारण किया, विश्वस्त होने पर वस्त्र को ले लिया । इस प्रकार परस्पर अनुराग बढ़ते हुए कुछ समय बीत गया। मुझे चिन्ता उत्पन्न हुई । 'हम दोनों १. तओ य संभमेणक, २. विहंगगभण- ख, ३. सलिणं पुण घेत्तूण मागओ-ख, ४ सित्ता पाणिएणंख, ५. एहिं दिट्ठो तुमं - ख । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001881
Book TitleSamraicch Kaha Part 1
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1993
Total Pages516
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & literature
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy