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________________ [ बगराइ ३२ । करूँगा और पुत्र का नाम भगवान् के नाम पर ही रखूंगा। अनन्तर उन दोनों के युवावस्था में वर्तमान होने पर वह ब्रह्मस्वर्ग का वासी देव आयु पूरी कर वहाँ से च्युत हो श्रीदेवी के गर्भ से पुत्र के रूप में उत्पन्न हुआ । सेठ वैश्रवण धनदेव के मन्दिर में गया, यक्ष पूजा की और बालक का नाम 'धन' रखा। जालिनी का जीव उस नरक से निकलकर पुनः संसार में भ्रमण कर दूसरे भव में अकामनिर्जरा से मरकर उसी नगर में सार्थवाह व्यापारी की गोमती नामक पत्नी के गर्भ से उत्पन्न हुआ । उसका नाम 'धनश्री' रखा गया। धन के साथ धनी का विवाह हुआ। अनन्तर धनश्री उसी घर के नन्दक नामक सेवक से मिल गयी। एक बार धन नन्दक तथा अन्य व्यापारियों के साथ ताम्रलिप्ती को व्यापार हेतु गया । धनश्री भी साथ में गयी । धन को माल बेचने से यथेष्ट लाभ नहीं हुआ। लाभ न होने से वह अत्यधिक दुःखी हो रहा था। इसी बीच भागता हुआ महेश्वरदत्त नामक जुआरी आया। वह जुए में सोलह स्वर्ण हार गया था, न दे पाने के कारण जुबारी उसका पीछा कर रहे थे। धन ने सोलह स्वर्ण देकर महेश्वरदत्त को छुड़ाया। महेश्वरदत्त योगीश्वर नाम के कापालिक के समीप प्रव्रजित हो गया। धन अन्य माल लेकर दूसरे द्वीप की ओर चला गया। धनश्री ने नन्दक के प्रति आसक्ति तथा धन के प्रति वैर के कारण दुःसाध्य रोग उत्पन्न कर बाद में मार देने वाला कार्मण योग ( उच्चाटन प्रयोग ) धन को दे दिया। इससे धन का शरीर सूज गया और उसमें में फोड़े उत्पन्न गये । एक बार समुद्र यात्रा के समय वणिक्पुत्र जब पैर धोने के लिए उठा तो धनश्री ने उसे पाताल के समान गहरे समुद्र में फेंक दिया। गिरने के बाद धन पहले से नष्ट हुए जहाज का एक टुकड़ा प्राप्त कर सात रात्रियों में 'समुन्द्र पारकर, खारे जल का सेवन करने से रोगरहित होकर किनारे पर पहुँच गया। उसने थोड़ी दूर जाकर सिंहलद्वीप की ओर जानेवाली श्रावस्ती के राजा के पुत्री की दासी जो कि जहाज टूट जाने के कारण मर गयी थी, के दुपट्टे में उस स्थान को चमकाती हुई तीनों लोकों की सारभूत रत्नावली को देखा । यथार्थ में पुत्री के पिता ने साथ में एक दासी भेजी थी, जिसे भण्डारी ने रत्नावली दी थी। जहाज टूट जाने पर 'की तरंगों ने उसे किनारे पर फेंक दिया और वह मर गयी, उस स्थान पर आकर इसने उसे देवा । समुद्र धन ने व्यापारार्थं वह रत्नावली ले ली। देश के समीप चलने पर उसे महेश्वरदत्त कापालिक मिला। उसे गाड मन्त्र सिद्ध हो गया था। पूर्व उपकार को स्मरण में रखते हुए उसने धन को गारुड मन्त्र दे दिया । उस मन्त्र को पढ़ने मात्र से तक्षक सर्प के द्वारा काटा गया व्यक्ति भी जीवित हो जाता था। महेश्वरदत्त के द्वारा भेजा जाकर 'धन' श्रावस्ती पहुंचा। उस नगर में उस रात राजा विचारधवल के भण्डार में चोरी हुई थी अतः दुष्ट नगर निवासी और दूसरे जालसाज पकड़े जा रहे थे। धन की भी तलाशी ली गयी, किसी प्रकार मन्त्री ने उसके पास रत्नावली पायी मन्त्री ने सोचा निश्चित रूप से राजपुत्री का अकुशल हुआ है, नहीं तो इसके पास यह कहाँ से आयी ? धन से पूछा गया। धन ने कहा- 'मैं जहाज से महाकटाह द्वीप गया था। वहाँ पर मैंने इसे खरीदा। आते हुए मेरा वह जहाज नष्ट हो गया, अतः मैं इतनी मात्र सम्पदा का स्वामी रह गया हूँ। धन के असम्बद्ध प्रलाप से मन्त्री उसे राजा के पास ले गया। राजा ने कुपित हो उसके वध की आज्ञा दे दी । चाण्डाल धन की भव्य आकृति के कारण उसे मारने में समर्थ नहीं हुआ। इसी बीच राजा के सुमंगल नामक पुत्र को, जो कि उद्यान में गया था, सांप ने काट खाया । धन ने गारुड मन्त्र की सहायता से उसके प्राण बचाये। इसी समय प्रतीहारी ने राजपुत्री के आने की सूचना दी। राजा ने जाकर राजपुत्री से रत्नावली का वृत्तान्त पूछा। राजकुमारी ने कहा कि उसने जो रस्नावली दासी को संभालकर रखने को दे दी थी और उसे अपने दुपट्टे में बांधकर छिपा लिया था। अनन्तर जहाज नष्ट हो जाने पर पता नहीं उसकी क्या परिणति हुई। राजा ने धन से सही बात ज्ञात की। उसे बहुमूल्य आभूषण देकर सुशर्म नगर भेज दिया। कुछ दिन में गिरिम्थन नगर आये। वहाँ पर उसी दिन राजा चण्डसेन के सर्वसार नामक भण्डारगृह की चोरी हो 1 Jain Education International --- For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001881
Book TitleSamraicch Kaha Part 1
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1993
Total Pages516
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & literature
File Size13 MB
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