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[ समराइन्धकहा
वृक्ष देखा, जिसका बहुत बड़ा भाग पृथ्वी में घुसा हुआ था। उसे देखकर मुझे कोतूहल हुआ। मैंने सोचा-अरे ! आश्चर्य है कि इतने से वृक्ष की इतनी-सी शाखा से निकलकर यह भाग पृथ्वी में गहराई तक प्रविष्ट हो गया है। इसका निश्चित ही कोई कारण होना चाहिए।
इसी बीच मैंने भगवान् अजितनाथ का धर्मचक्र देखा । मैंने सोचा-मैं धन्य हूँ जो कि मैंने तीनों लोकों के चिन्तामणि भगवान् को पा लिया। उन्होंने धर्मकथा प्रस्तुत की। मैंने भगवान से पूछा- 'भगवन् ! उस नारियल के वृक्ष की जड़ भूगर्भ में बहुत दूर तक है, इसका क्या कारण है ?' भगवान् ने कहा---'सुनो ! इसी देश में अमरपुर नाम का नगर है । वहाँ अमरदेव नाम का गृहस्थ हुआ । उसकी पत्नी 'सुन्दरी' थी। उन दोनों के तुम दोनों क्रमश: गुणचन्द्र और बालचन्द्र नामक पुत्र हुए। यौवनावस्था प्राप्त होने पर बहुत सारे कपड़ों का माल लाकर व्यापार करते हुए इस देश में आये। माल को बेचा, इष्ठ लाभ हुआ। शत्रुओं के भय से तुम दोनों लक्ष्मी पर्वत पर चढ़ गये। एक स्थान पर धन गाड़कर उसकी देखभाल करते हुए तुम दोनों ठहर गये। कुछ समय बीत गया । लोभ के दोषवश तुम्हें साझीदार समझकर गुणचन्द्र ने विष देकर मार डाला। शुद्ध स्वभाव के कारण तुम व्यन्तर देवों में उत्पन्न हए । गणचन्द्र भी धन का भोग न कर, साँप के द्वारा काटा जाकर मर गया और रत्नप्रभा नामक नरक में उत्पन्न हुआ। तदनन्तर तुम एक पल से कम की आयु भोगकर इसी देश के टंकणापुर नगर में हरिनन्दिन व्यापारी की 'वसुमती' नामक स्त्री के गर्म में पुत्र के रूप में आये और कालक्रम से उत्पन्न हुए। तुम्हारा नाम देवदत्त रखा गया। तुम कुमारावस्था को प्राप्त हए। इसी बीच गुणचन्द्र उस नरक से निकलकर लोभ के दोष से इसी लक्ष्मी पर्वत पर, इसी गड़े हुए धन के पास, सर्प के रूप में उत्पन्न हुआ। उसने उस धन को अपने अधिकार में ले लिया। इसी बीच लक्ष्मी पर्वत पर निवास करने वाली देवी के उत्सव में तुम उस पर्वत पर आये । देवी की पूजा की। दीन और अनाथों को धन दिया। अनन्तर पूर्वभव के स्नेह से घूमते हुए इस स्थान पर आये । साँप ने तुम्हें देखकर लोभ के दोष से—'यह इस धन को ले लेगा' ऐसा सोचकर तुम्हारे पैरों में डस लिया। समीपवर्ती तुम्हारे बन्धु-बान्धवों ने साँप को मार डाला। वह सर्प इसी पर्वत पर सिंह के रूप में उत्पन्न हुआ है। तुम भी मरकर इसी देश की कृतमंगला नगरी में शिवदेव कुल पुत्र की यशोधरा रानी के गर्भ में पुत्र के रूप में आये। समयानुसार जन्म हुआ। तुम्हारा नाम 'इन्द्रदेव' रखा गया। एक बार राजा वीरदेव ने तुम्हें लक्ष्मीनिलय के स्वामी मानभंगके पास भेजा। कुछ लोगों के साथ आते हुए कालक्रम से जब तुम इस स्थान पर आये तो पर्वतीय गुफा की ओर गये सिंह ने तुम्हें देखा । लोभ की संज्ञा से विपरीत बुद्धिवाले सिंह ने तुम्हें मार डाला और इसे तुमने भी मार डाला। बाद में तुम दोनों चाण्डाल के रूप में उत्पन्न हुए। इसी धन के निमित्त उसने तुम्हें मार डाला । वह भी उस धन का भोग न कर सका और एक अन्य वैरी चाण्डाल द्वारा मारा गया। दोनों नारकी हुए। अनन्तर तुम श्रीमती सन्निवेश में शक्तिभद्र गृहपति की नन्दिनी नामक पत्नी से पुत्र के रूप में उत्पन्न हुए। तुम्हारा नाम बालसुन्दर रखा गया। तुमने श्रावकधर्म का पालन कर विधिपूर्वक शरीर छोड़ा । तुम लान्तव नामक स्वर्ग में तेरह सागर से कुछ कम आयु वाले वैमानिक देव हुए। वहाँ से आयु का क्षयकर हस्तिनापुर नगर में सुहस्ती नामक सेठ के पुत्र हुए। दूसरा भी नरक से निकलकर उसी नगर में सोमिला नामक गृहदासी का पुत्र हुआ। दोनों के नाम क्रमशः समुद्रदत्त और मंगलक रखे गये। इसी बीच तुमने अनंगदेव गणि के समीप जिन-प्रणीत धर्म पाया । एक बार मंगलक के साथ अपनी पत्नी जिनमति के निमित्त समुद्रदत्त लक्ष्मीनिलय पर आया। किसी प्रकार दोनों को धन की जानकारी हुई। मंगलक ने धन के लोभ के कारण एक बार मौका पाकर छुरी से समुद्रदत्त (तुम) पर प्रहार किया, किन्तु किसी प्रकार वह बच गया । तब समुद्रदत्त अनंगदेव गुरु के समीप दीक्षित हो गया। अतिचाररहित श्रमर्ण-धर्म का पालन करते हुए तुम काल
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