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________________ १५० [ समराइज्यकहा माहणस्स सुहंकराए भारियाए कुच्छिसि इत्थियत्ताए उववन्नोति । जाया उचियसमएणं । कयं से नाम जालिणित्ति कहाणयविसेसेण । पत्ता जोव्वणं । दिन्ना तस्स चेव राइणो बुद्धिसागराभिहाणसचिवपुत्तस्स बंभदत्तस्स । कयं पाणिग्रहणं । भुंजमाणाण भोए गओ कोइ कालो । इओ सो सहदेवो तओ देवलोगाओ चविऊण अचितमाहप्पयाए कम्मरस, तीसे चेव जालिजीए कुच्छिसि पुत्तत्ताए उववन्नोति । दिट्ठो य तोए तीए चैव रयणीए सुमिणओ- जहा किर सुवण्णमयपुण्णकलसो मे उयरं पविट्टो, सो य असंजायपरिओसाए विणिग्गओ समाणो कहकह वि भग्गो त्ति । त च दट्ठूण ससज्झसा वि य विउद्धा एसा । जाओ से संकिण्णो सुहरसो । न साहिओ य तीए सुमिणओ दइयस्स । तओ बडिउं पयत्तो गन्भो । जाया से देहमणपीडा । चितियं च तीए - 'वावाएमि ताव एवं पावगन्भं ति । पउत्ताइं गब्भसाडणाई । कम्मविवागओ न विदन्नो गन्भो । मुणिओ य वुत्तन्तो बंभदत्तेण । निउत्तो तेण परियणो पसूइसमए, जहा गब्भविवत्ती न हवइ तहा तुम्भेहिं जइयध्वं अवि य भट्टिणीपरिओसनिमित्तं कचि चित्तं से वंचिऊण मम निवेइयन्वो हिण्ड्य इन्द्रशर्मणो ब्राह्मणस्य शुभंकरता भार्याया कुक्षौ स्त्रिकतया उपपन्न इति । जाता उचितसमयेन । कृतं तस्या नाम जालिनी इति कथानकविशेषेण । प्राप्ता यौवनम् । दत्ता तस्य एव राज्ञो बुद्धिसागराभिधान सचिवपुत्रस्य ब्रह्मदत्तस्य । कृतं पाणिग्रहणम् । भुञ्जानयोर्भोगान् गतः कश्चित् कालः । इतश्च सः सिंहदेवः ततो देवलोकात् च्युत्वा अचिन्त्य माहात्म्यतया कर्मणः, तस्या एव जालिन्या: कुक्षौ पुत्रतया उपपन्न इति । दृष्टश्च तया तस्यामेव रजन्यां स्वप्नकः - यथा किल सुवर्णमयपूर्णकलशो मम उदरं प्रविष्टः स च असंजातपरितोषाया विनिर्गतः सन् कथंकथमपि भग्न इति । तं च दृष्ट्वा ससाध्वसा इव विबुद्धा एषा । जातस्तस्या संकीर्णः सुखरसः । न कथितश्च तया स्वप्नको दयितस्य । ततः स वधितुं प्रवृत्तो गर्भः । जाता तस्य देह-मनः पीडा । चिन्तितं च तया -- 'व्यापादयामि तावद् एतं पापगर्भम्' इति । प्रयुक्तानि गर्भशातनानि । कर्मविपाकतो न विपन्नो गर्भः । ज्ञातश्च वृत्तान्तो ब्रह्मदत्तेन । नियुक्तस्तेन परिजन: प्रसूतिसमये, यथा गर्भविपत्तिनं भवति तथा युष्माभिः यतितव्यम् अपि च भर्त्रीपरितोषनिमित्तं कथंचित् चित्तं तस्य वञ्चित्वा 1 और भी कुछ कम चार सागर प्रमाण संसार में भ्रमण कर इन्द्र शर्मा ब्राह्मण की शुभंकरा नामक पत्नी के गर्भ में स्त्री के रूप में आया । उचित समय पर उसका जन्म हुआ । उसका कथानक विशेष से जालिनी नाम रखा गया । ( वह) यौवनावस्था को प्राप्त हुई । उसी राजा के बुद्धिसागर नामक मन्त्री (सचिव) के पुत्र ब्रह्मदत्त को वह दी गयी । पाणिग्रहण संस्कार किया । भोग भोगते हुए दोनों के कुछ समय व्यतीत हो गया । इधर वह सिंहदेव उस स्वर्ग से च्युत होकर कर्म की अचिन्त्य महिमा से उसी जालिनी के गर्भ में पुत्र के रूप में आया। जालिनी ने उसी रात्रि में स्वप्न देखा कि स्वर्ण से भरा हुआ पूर्ण कलश उसके गर्म में प्रविष्ट हुआ और उसके असन्तुष्ट होने के कारण निकलकर किसी प्रकार टूट गया। उसे देखकर घबड़ायी हुई के समान वह जाग गयी। उसे कुछ कम सुख हुआ। उसने पति से स्वप्न के विषय में नहीं कहा। तब वह गर्भ बढ़ने लगा । उसके शरीर और मन में पीड़ा हुई। उसने सोचा इस पापी गर्भ को मार डालू" । गर्भ के नष्ट करने के उपाय किये । कर्म के फल से गर्भ नष्ट नहीं हुआ । ब्रह्मदत्त को वृत्तान्त ज्ञात हुआ । उसने जन्म के समय सेवक नियुक्त किये ( और उनसे कहा कि ) जिस प्रकार गर्भ विपत्ति में न पड़े वैसा तुम लोग उपाय करना और स्वामिनी के सन्तोष के लिए किसी प्रकार उसके चित्त को धोखा देकर मुझे निवेदन करना । उसे दोहला हुआ कि मैं सभी For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International
SR No.001881
Book TitleSamraicch Kaha Part 1
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1993
Total Pages516
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & literature
File Size13 MB
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