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________________ पंचमो भवो ] ४३६ तेउरअमच्चमहासामंतनायरेहि य परिहरिओ। पच्चोणि गंतू । निवडियाइं चलणेसु अम्मा पिईण अम्हे। परुन्नं च पभयमभयवग्गेहि'। समासासिपाई कहकहवि अम चमहासामंतेहिं । तओ पवेसियाई राइणा महाविभूईए [सेयवियं । जणणिजणयाण निययदंसगेण आणंदो कुमारेण कओ। तओ महाविभूइए अइक्कंतो कोइ कालो तायसगासे चिट्ठतस्स । तओ पंचतमुवगएतु काऊण जणणिजणएसु रज्जाभिसेयं नियाणुजस्स कित्तिनिलयाभिहाणस्स गओ वेयड् पदयं । पट्टिो रहनेउरचक्कवालपुरं। अइक्कंतो कोइ कालो। एत्थरम्मि आगओ भयवं बहुसीसपरिवारो संपुग्णसमर गुणहरो चउन जसंगओ चित्तंगओ न म विज्जाहरसमणगो त्ति । आयण्णिओ मए परियणाओ। निगाओ अहं जयवंतदंसणवडियाए । वंदिओ भयवं। धम्मलाहिओ भयवया । भणियं च तेण --भो भो विज्जाहरीसर, पाक्यिं तए फलं पुवभागधेयाणं; ता इमं विद्याणिऊग पुणो वि कुसलपक्खे मई करेहि ति।सए भणियं-कोइसो कुसलपक्खो त्ति । आचिक्खिओ भयवयापसमसंवेगमूलो जिणदेसिओ धम्मो। परि ओ अम्हाणं, पडिवन्न सम्मत्तं, पच्चोणि (दे०) सन्मखं गत्वा निपतिताश्चरणयोर्मातापितृ णां वरम् । प्ररुदितं च प्रभूतमभयवगैः। समाश्वासिताः कथं कथमपि अमात्य-महासामन्तैः । तत प्रवेशिता राज्ञा महाविभूत्या [श्वेतविकाम् । जननीजनकयोश्च निजदर्शनेनानन्दः कुमारेण कृतः । ततो महाविभूत्या] त्यतिक्रान्तः कोऽपि कालः तातसकाशे तिष्ठतः । ततः पञ्चत्वमपगतयोर्जननी नकयो: कृत्वा राज्याभिषेकं निजानुजस्य कीर्तिनिलयाभिधानस्य गतो वैताढ्यपर्वतम् । प्रविष्टो र नपुरचऋवालपुरम् । अतिक्रान्तः कोऽपि कालः। ___ अत्रान्तरे आगतो भगवान् बहुशिष्यपरिवारः सम्पूर्णश्नमणगुणधरश्चतुर्ज्ञानसङ्गनश्चित्राङ्गदो नाम विद्याधरश्रमणक इति । आकर्णितो मया परिजनात् । निर्गतोऽहं भगवदर्शनवत्तितया । वन्दितो भगवान् । धर्मलाभितो भगवता। भणितं च तेन-भो भो विद्याधरेश्वर । प्राप्तं त्वया फलं पूर्वभागधेयानाम, तत इदं विज्ञाय पुनरपि कुशलपक्षे मतिं कुर्विति । मया भणितम-कीदशः कुशलपक्ष इति । आख्यातो भगवता (रमसंवेगमलो जिनदेशितो धर्मः । परिणतोऽस्माकम, प्रतिपन्नं महामात्य, महासामन्त और नागरिकों के साथ निकले। हम लोग समीप पहुँचकर माता-पिता के चरणों में झक गये । दोनों तरफ से लोग खूब रोये। अमात्य और महासामन्तों ने जिस किसी प्रकार आश्वासन दिया। तब महाविभूति के साथ राजा ने (श्वेतविका में) प्रवेश कराया, [कुमार ने अपने माता-पिता को दर्शन देकर आनन्दित किया, अनन्तर महाविभूति से माता-पिता के स्वर्गवास के बाद अपने कीर्तिनिलय नामक छोटे भाई का राज्य पर अभिषेक कर वैताढ्य पर्वत पर गया । रथनूपुरचक्रवाल नगर में प्रविष्ट हुआ। कुछ समय बीत गया। इसी बीच बहुत से शिष्यों के साथ श्रमण के सम्पूर्ण गुणों के धारी, चार ज्ञानों से युक्त, चित्रांमद नाम के विद्याधर श्रमण भगवान् आये । मैंने सेवकों से सुना। भगवान् के दर्शन करने के लिए मैं निकला। भगवान की वन्दना की । भगवान् ने धर्म-लाभ दिया और कहा–'हे विद्याधरेश्वर ! तुमने पूर्वजन्मों के भाग्यों का फल पा लिया है। अतः इसे जागकर पुनः शुभपक्ष में बुद्धि लगाओ ' मैंने कहा---'कैसा शुभ पक्ष ?' भगवान् ने कहा-'परमवैराग्य का मूल जिनोपदिष्ट धर्म ।' हमारी परिणति हुई, सम्यक्त्व हुआ, अणुव्रतों को धारण किया। .. बहूय"-क । २. कहकर वि समासासियोई-,३. "अन्नया कन्तूण तामलित्ति (त्ति) वि(ला)सव इनिग्गमणदुहिमो सिद्धाएमक्यणमणिप-गयलवुत्तंतो तयपभिई कुविओ प्रणंगवईए गंतूण सविणयं पसाइओ इसाणचंदो कुमारेण । एवं सो गमिऊण तत्थ कइ(व)यदियहे समागमो णो वि तायनगरि रि), ठिमी तत्य कइवि दियेहि" इत्यधिकः पाठः कपुस्तके । ४. "गणहरो-क । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001881
Book TitleSamraicch Kaha Part 1
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1993
Total Pages516
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & literature
File Size13 MB
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