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________________ भवो ] २९६ राया । संपाडियं पओयणं तेसि । नीओ तेण नयणावलीए समीवं । भणिया य एसा । अंब, एयस्स रोहियमच्छस्स पुच्छभायं तायं अज्जियं च उद्दिसिऊण माहगाणं रंधावेहि, उवरिमभायं च पक्कतलियं काऊण मज्झमत्तणो य विसेसं [ सं ] करेज्जासि । एवं च मे सुणमाणस्स देवि च पेच्छिऊण समुप्पन्नं जाइस्सरणं । एवं च रन्ना समाणते छिंदिऊण पुच्छखंडं पेसियं माहणाणं नयणावलीए । सेसदेहम्मि निच्छल्लियाई खवल्ला इं', दिन्नं तिगडुक्कड हिंगुलोणं, परिसित्तो हलिद्दापाणिएण । तओ उव्वत्तंत मक्खणभरियाए पक्खित्तो महाकवल्लीए, संवत्तुव्वत्तएण तलिज्जिडं पयत्तो । तो छिन्नभिन्नपक्कं खाहिइ पुत्तो मम ति जाणामि । तिव्ववियणाहिभूओ न धम्मभाणं भियाएमि ॥ ४०० ॥ विकत्थिओ मे निरयगइ समाणएहि दुक्खहिं । ढकम्मनियलबद्धो न मुयइ जीवो सरीरं ति ॥ ४०१ ॥ एवं च तत्थ तिव्ववेयणाभिभूओ चिट्ठामि । एवं च ताव एयं । सम्पादितं प्रयोजनं तेषाम् । नीतस्तेन नयनावल्याः समीपम्, भणिता चैषा - अम्ब, एतस्य रोहितमत्स्यस्य पुच्छभागं तातमायिकां चोद्दिश्य ब्राह्मणानां ( भोजनाय ) रन्धय । उपरितनभागं च पक्वतलितं कृत्वा ममात्मनश्च विशेषं संस्कुर्याः । एवं च मे शृण्वतो देवों च प्रक्षित्वा समुत्पन्नं जातिस्मरणम् । एवं च राज्ञा समाज्ञप्ते छित्त्वा पुच्छखण्डं प्रेषितं ब्राह्मणानां नयनावल्या । शेषदेहे छिन्नास्त्वचः, दत्तं त्रिकटूत्कटं हिङ्ग लवणम् परिसिक्तो हरिद्रापानीयेन । तत उद्वर्तमानम्रक्षणभृतायां प्रक्षिप्तो महाकटाह्याम् संवर्तोद्वर्तनेन तलितुं प्रवृत्तः । ततरिछन्नभिन्नपक्वं खादिष्यति पुत्रो मामिति जानामि । तीव्र वेदनाभिभूतो न धर्मध्यानं ध्यायामि ॥४०० ॥ इति विकदर्थितो मे निरयगतिसमानैर्दु खैः । दृढकर्मनिगडबद्धो न मुञ्चति जीवः शरीरमिति ॥ ४०१ || एवं च तत्र तीव्रवेदनाभिभतस्तिष्ठामि । एतच्च तावदेतत् । उनका कार्य पूरा किया । वह (मुझे ) नयनावली के पास ले गया और इससे कहा - "माता ! इस रोहित मछली को पूँछ को माता-पिता के निमित्त ब्राह्मणों के भोजन के लिए पकाओ। और ऊपर वाला भाग पकाकर और तलकर मुझे और अपने लिए विशेष रूप से बनाओ।" ऐसा सुनकर और महारानी को देखकर मुझे जातिस्मरण हो आया। राजा की ऐसी आज्ञा होने पर नयनावली ने पूँछ वाला भाग काटकर ब्राह्मणों को भेजा । शेष शरीर की चमड़ी काटकर उग्र सोंठ, पीपर और मिर्च डालकर हींग और नमक छिड़क दिया । हल्दी के पानी से उसे सींचा। इसके पश्चात् खुशबूदार पदार्थ भरकर कड़ाहे में डाला । हिला-डुलाकर तलने लगी । अनन्तर छेदे भेदे तथा पके हुए मुझे पुत्र खायेगा - ऐसा (मैंने ) धर्मध्यान नहीं किया। इस प्रकार नरक गति के दुःखों के बेड़ी से बंधा हुआ जीव शरीर को नहीं छोड़ता है || ४००-४०१ ॥ जानते हुए भी तीव्र वेदना से अभिभूत होकर समान मुझे पीड़ा उत्पन्न हुई । दृढ़ कर्मरूपी इस प्रकार जब मैं तीव्र वेदना का अनुभव कर रहा था तब इधर यह हुआ - १. सयास - ख २. विलंकं - कन्ग, ३. महाणसं -क, ४. खलिल्लाई -- ख, ५. एवं च तिब्ववेयणाउ पाविऊण इमं पिताव पावउत्ति उज्जोणी पासगामे जा सा पुम्बभव - ख । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001881
Book TitleSamraicch Kaha Part 1
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1993
Total Pages516
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & literature
File Size13 MB
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