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________________ २६८ [समराइच्चकहा तह खाइउं पवत्तो जह मज्झं खज्जमाणसदेण । भीएण व नीसेसं जीवेण कलेवरं मुक्कं ॥३६॥ तओ अहं, देवाणुप्पिया, एवं सकम्मविणिवाइओ समाणो तत्थेव विसालाए नयरीए दुटोदयाभिहाणाए निन्नयाए महादम्मि तत्थ मीणीए गब्भपुडए रोहियमच्छत्ताए समुप्पन्नो म्हि । सो वि य कण्हसप्पो तहा मरिऊण इमाए चेव सरियाए सुंसुमारत्ताए ति। जाया कालक्कमेणं । अन्नया अहं तत्थ चेव परिब्भमंतो दिट्ठो संसुमारेण, गहिओ पुच्छभाए एत्थंतरम्मि मज्जणनिमित्तं समागयाओ अंतेउरचेडियाओ। दिन्ना चिलाइयाभिहाणाए चेडियाए झंपा। तओ मं मोत्तण सा गहिया अणेण । सयराहं च पलाणो अहं । तीए वि य 'हा क'(अ)हं गहिया गहियत्ति महंतमारडियं । धरिया लोएण। कलयलरवेण समागया मच्छबंधा। ओयरिऊण मयाबिया चेडी, गहिओ य सुंसुमारो, मारिओ दुक्खमारेणं । अइक्कंतो कोइ कालो । एत्थंतरम्मि अहं केवट्टपुरिसेहि समासाइओ जालेणं गहिओ जीवंतओ, महामच्छो'त्ति कलिऊण समुप्पन्नकजेहि पाहुनिमित्तमुवणीओ गुणहरस्स। परितुट्ठो तथा खादितुं प्रवृत्तो यथा मम खाद्यमानशब्देन । भीतेनैव निःशेषं जी वेन कलेवरं मुक्तम् ॥३६६॥ ततोऽहं देवानुप्रिय ! एवं स्वकर्मविनिपातितः सन् तत्रैव विशालाया नगर्या दुष्टोदकाभिधानायां निम्नगायां महाह्रदे तत्र मीन्या गर्मपुटके रोहितमत्स्यतया समुत्पन्नोऽस्मि, सोऽपि कृष्णसर्पस्तथा मृत्वाऽस्यामेव सरिति सुंसुमारतया (शिशुमारतया) इति । जातौ कालक्रमेण । अन्यदाऽहं तत्रैव परिभ्रमन् दृष्ट: सुंसुमारेण, गृहीतः पुच्छभागे । अत्रान्तरे मज्जननिमित्तं समागता अन्तःपरचेटिकाः । दत्ता चिलातिकाऽभिधानया चेटिकया झम्पा । ततो मां मुक्त्वा सा गृहीताऽनेन । झटिति पलायितोऽहम् । तयाऽपि च 'हा अहं गृहोता गृहीतेति महदारटितम् । धृता लोकेन । कलकलरवेण समागता मत्स्यबन्धाः । अवतीर्य मोचिता चेटी, गृहीतश्च शिशुमारः, मारितो दुःखमारेण । अतिक्रान्तः कोऽपि कालः । अत्रान्तरेऽहं कैवर्तपुरुषैः समासादितो जालेन गृहीतो जीवन । 'महामत्स्यः' इति कलयित्वा समुत्पन्नकार्यः प्राभृतनिमित्तमु पनीतो गुणधरस्य । परितुष्टो राजा। वह मुझे इस प्रकर खाने लगा कि खाने के शब्द से भयभीत होकर ही मैंने शरीर से प्राण छोड़ दिये ॥३६॥ तदनन्तर हे देवानुप्रिय ! इस प्रकार अपने ही कर्म से मारा जाकर मैं उसी विशाला नगरी (उज्जयिनी) के 'दुष्टोदक' नामक नदी के बहुत बड़े सरोवर में मछली के गर्भ में 'रोहित मत्स्य' के रूप में आया। वह काला सांप भी उसी प्रकार मरकर इसी तालाब में सूंस के रूप में आया। दोनों कालक्रम से उत्पन्न हुए । एक बार वहीं घूमते हुए मुझे सूंस ने देखा और पूंछ की ओर से पकड़ लिया । इसी बीच स्नान करने के लिए अन्तःपुर की दासियाँ आयीं। चिलातिका नामक दासी ने झपट दी। तब मुझे छोड़कर उसने इसे पकड़ लिया। मैं शीघ्र भाग गया। वह भी 'मुझे पकड़ लिया, पकड़ लिया' इस प्रकार कहकर जोर से चिल्लायी। लोगों ने सुना - कोलाहल से मछली पकड़ने वाले आ गये । उतरकर दासी को छुड़ाया और सूंस को पकड़ लिया (तथा उसे) दुःख की मार से माग । कुछ समय बीत गया। इसी बीच मल्लाहों ने जाल से जीवों को पकड़ते हुए मुझे पकड़ लिया। बहुत बड़ा मत्स्य है-ऐसा मानकर कार्यवश गुणधर के पास भेंट के रूप में ले गये । राजा सन्तुष्ट हुआ। १. किहु-ख। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001881
Book TitleSamraicch Kaha Part 1
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1993
Total Pages516
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & literature
File Size13 MB
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