SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 225
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सानो भवो] ११७ एत्थंतरम्मि य कयं तियसेहिं भयवओ मणिकणयकलहोयमयनिम्मियपायारतियं, सुविहत्तदिव्वतोरणं, रयणमयविचित्तकविसीसयं, ऊसियमहाकेउनिवह, गुंजंतमहुयरामोयसोहियं, ऊसियसियायवत्तमणहरं, वेरुलियदिव्वसीहासणं, महल्लसीहधयचक्कमंडियं समोसरणं ति । पविट्ठो भयवं । पत्युया धम्मकहा । कहिओ भगवया असासओ जीवलोगो । अवगओ अम्हाणं । तओ तं पुत्वकोउयं समणुस्सरतेण पुच्छिओ भयवं मए तिलोयनाहो। भयवं ! किं पुण तस्स नालिएरिपायवस्स पायओ ओइण्णो, कि अत्थि तत्थ दविणजायं कि वा नहि (निही), किपरिमाणं वा, केण वा तं ठवियं, कोइसो वा तस्स विवागो त्ति ? भगवया भणियं-सुण, लोहदोसेण पायओ ओइण्णो। अस्थि तत्थ दविणजायं । तं च दीणारसत्तलक्खपरिमाणं । तुमए तेणं च नालिएरिजीवेण ठावियं । धम्मसाहओ य विवागो एयस्स । मए भणियं-भयवं! कहं पुण मए इमिणा य ठवियं, कहं च मम ईदिसो विवागो इमस्स वि ईदिसो त्ति । भगवया भणियं-सुण, अत्थि इहेव विजए अमरउरं नाम नयरं। तत्थ अमरदेवो नाम गाहावई होत्था। सुंदरी से अत्रान्तरे च कृतं त्रिदशैर्भगवतो मणिकनकवलधौतमयनिर्मितप्राकारत्रिकम , सुविभक्तदिव्यतोरणम्, रत्नमयविचित्रक पिशीर्षकम्, उच्छितमहाकेतुनिवहम्, गुञ्जन्मधुकराऽऽमोदशोभितम्, उच्छ्रितसिताऽऽतपत्रमनोहरम्, वैडूर्यदिव्यसिंहासनम् , महासिंहध्वजचक्रमण्डितं, समवसरणम्इति । प्रविष्टों भगवान् । प्रस्तुता धर्मकथा । कथितो भगवता अशाश्वतो जीवलोकः । अवगतोऽस्माभिः । ततस्तं पूर्वकौतुकं समनुस्मरता पृष्टो भगवान् मया त्रिलोकनाथः । भगवन् ! कि पुनस्तस्य नालिकेरीपादपस्य पादकोऽवतीर्णः, किम् अस्ति तत्र द्रविणजातं किं वा निधि:. किंपरिमाणं वा, केन वा तत् स्थापितम् , कीदृशो वा तस्य विपाक इति ? भगवता भणितम्-- शृणु, लोभदोषेण पादकोऽवतीर्णः । अस्ति तत्र द्रविणजातम् । तच्च दीनारसप्तलक्षपरिमाणम् । त्वया तेन च नालिके रोजीवेन स्थापितम् । धर्मसाधकश्च विपाक एतस्य । मया भणितम्-भगवन् ! कथं पुनर्मया अनेन च स्थापितम्, कथं मम ईदृशो विपाकः, एतस्याऽपि ईदृश इति । भगवता भणितम् , शृणु-- अस्ति इहैव विजये अमरपुरं नाम नगरम् । तत्र अमरदेवो नाम गृहपतिरभवत् । सून्दरी इसी बीच देवों ने भगवान का समवसरण बनवाया । उस समवसरण की तीन दीवारें रत्न, स्वर्ण और चांदी की बनी थीं। उनमें अच्छी तरह से विभाजित दिव्य तोरण लगे थे । रत्नमय नाना प्रकार के प्राकार के कंगूरे थे और बहुत बड़ी पताकाओं का समूह फहरा रहा था । गुंजार करते हुए भौंरों की सुगन्ध से वह शोभित था। ऊपर उठे हुए सफेद छत्र से वह मनोहर था। वैडूर्यमणि का वहाँ पर दिव्य सिंहासन रखा हुआ था तथा महासिंह की ध्वजाओं के समूह से वह मण्डित था। (उसमें) भगवान प्रविष्ट हुए । उन्होंने धर्मकथा प्रस्तुत की। भगवान ने कहा कि संसार अनित्य है। हम लोगों ने जानकारी प्राप्त की। अनन्तर उस पूर्वकौतुक को स्मरण कर मैंने भगवान से पूछा-''भगवन् ! उस नारियल के वृक्ष का पादक क्यों अवतीर्ण हुआ हैं, क्या वहाँ धन है अथवा कोष है, वह कितने परिमाण का है, किसने उसको रखा है और उसका फल कैसा है ?" भगवान् ने कहा- "सुनो, लोभ के दोष से पादक अवतीर्ण हुआ है। वहाँ पर धन है । वह सात लाख दीनार प्रमाण है । तुमने और उस नारियल के जीव ने रखा था। इसका फल धर्मसाधक है।" मैंने कहा--"भगवन् ! कैसे मैंने और इसने रखा था, मेरा ऐसा फल कैसा और इसका ऐसा कैसे ?' भगवान् ने कहा--सुनो, इसी देश में अमरपुर नामका नगर है । वहाँ पर अमरदेव नामका गृहस्थ हुआ। उसकी पत्नी सुन्दरी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001881
Book TitleSamraicch Kaha Part 1
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1993
Total Pages516
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & literature
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy