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[समपराइचकहा
पव्व । तओ महाराएण भणियं - 'ता एवं ठिए कि अम्हेहि कायव्वं' ति ? तीए भणियं - विन्नवेहि' महारा । जहा ताय, ईइसो चेव एस संसारसहावो; कस्स वा सयण्णविन्नागरस न विरागं करेइ ? ता अलमेत्थ सुमिणयमेत्तविभमे पंडिबंधेण, संपाडेहि कुमारस्य समाहियं; अणुजाणाहिय मपि पव्वज्जं, जओ ममपि विरतं चैव चित्तं भवचारगाओ ति । एवं च सोऊण 'अहो माइंदजालसरिसया जीवलोयस्स' त्ति भगिऊण परं संवेगमुवगओ राया । भणियं च तेण पुत्त, न तुमं मम ' पुत्तो, अवि य धम्मनिउज्जणाओ गुरू । ता अलं अम्हाणं पि इमिणा परिकिले सेण; अहं पि पवज्जामि तुम चैव सह पव्वज्जं | अंबाहों भणियं - अज्जउत्त, जुत्तमेयं; किमेत्थ नडपेडगोवमे असासम्म जीवलोए पsिबंधेण । तओ मए भणिए-अहासुहं देवाणुप्पिया' ! मा पडिबंधं करेह । तओ ताएण दवावियं महादाणं, काराविया सव्वाययणेसु पूया, सम्माणिओ रायसत्यो ठावियो रज्जम्मि खुडुभाया मे जसaaणाभिहाणो । पव्वइओ ताओ समं मए अंबाए विजयमईए पहाणजणबएण य सुगिहीयनामधेयस्स
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कुमारस्य, इच्छति खलु स प्रव्रजितुम् । ततो महाराजेन भणितम् - तत एवं स्थिते किमस्माभिः कर्तव्यमिति । तया भणितम् - विज्ञपय महाराजम् । यथा तात ! ईदृश एव एष संसारस्वभाव:, कस्य वा सकर्णविज्ञानस्य न विरागं करोति । ततोऽलमंत्र स्वप्नमात्रविभ्रमे प्रतिबन्धेन, सम्पादय कुमारस्य समीहितम्, अनुजानीहि च ममापि प्रव्रज्याम्, यतो ममापि विरक्तमेव चित्तं भवचारकादिति एतच्च श्रुत्वा 'अहो ! मृगेन्द्रजालसदृशता जीवलोकस्य' इति भणित्वा परं संवेगमुपगतो राजा । भणितं तेन - पुत्र ! न त्वं मम पुत्रः, अपि च धर्मनियोजनाद् गुरुः । ततोऽलमम्माकमपि अनेन परिक्लेशेन, अमपि प्रपद्ये त्वयैव सह प्रव्रज्याम् | अम्बाभिर्भणितम् - आर्यपुत्र ! युक्तमेतद् किमत्र नटपेटको शाश्वते जीवलोके प्रतिबन्धेन । ततो मया भणितम् -- यथासुखं देवानुप्रिया ! मा प्रतिबन्धं कुरुत ! ततस्तातेन दापितं महादानम्, कारिता सर्वांयतनेषु पूजा, सम्मानितो राजसार्थः, स्थापितो राज्ये लघुभ्राता मे यशोवर्धनाभिधानः । प्रब्रजितस्तातः समं मयाम्बया विनयमत्या प्रधानजनपदेन च सुगृहीतनामधेयस्य भगवत इन्द्रभूतेः समीपे । तत एवं निजकमेव मे चरित्रं निर्वेद
लेना चाहते हैं । तब महाराज ने कहा- "तो ऐसी स्थिति में हम लोगों को क्या करना चाहिए ।" राजपुत्री ने कहा - 'महाराज से निवेदन करो कि पिता जी ! इस संसार का स्वभाव ही ऐसा है, किस सुनने वाले को यह विरक्त नहीं करता है ? अतः स्वप्न के समान मात्र भ्रम से युक्त रुकावट से बस करो अर्थात् रोकना व्यर्थ है, कुमार के इष्टकार्य का सम्पादन करो। मुझे भी दीक्षा की अनुमति दो; क्योंकि मेरा भी मन संसार रूपी कारागार से विरक्त है ।' यह सुनकर - "ओह ! संसार सिंहजाल के सदृश है' – ऐसा गया। उसने कहा – “पुत्र ! तुम मेरे पुत्र नहीं हो, अपितु धर्म में लगाने के दुःख से कोई प्रयोजन नहीं है, में भी तुम्हारे साथ वीक्षा लेता हूँ ।" माताओं ने कहा- "आर्यपुत्र ! यह ठीक है, नट के पिटारे के समान अनित्य संसार में रुकने से क्या लाभ है ?" तब मैंने कहा - "हे देवानुप्रिय ! सुखपूर्वक अनुमति दो, रोको मत ।" अनन्तर पिताजी ने महादान दिलाया। सभी मन्दिरों में पूजा करायी, राजाओं के समूह का सम्मान किया । राज्य पर मेरे छोटे भाई यशोवर्धन को बैठाया । पिताजी ने मेरे माता विनयमती के और प्रधान देशवासियों के साथ भगवान् इन्द्रभूति के समीप दीक्षा ले ली । अतएव इस प्रकार मेरा ही अपना चरित्र
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१. विन्नवेमि - ख, 2 मे - ख, ३. नियोजणाओ -- ख ४ पुष्पियाइ - ख ५. अंबाए अंतेउरेग ख ६ विजय मइस मेएणं - ख ।
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कहकर राजा अत्यधिक विरक्त हो कारण गुरु हो । अतः हमें भी इस
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