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________________ १७० [ समराइच्चकहा उद्देसं । उवविट्ठो नीवपायवस्स हेट्ठे । एत्थंतरम्मि गिरिगुहामुहगएणं दिट्ठो सि सीहेणं । तओ लोहसन्नाविवज्जासियचित्तेणं वावाविओ सि इमिणा, इमो विय तुमए त्ति । उववन्ना य तुम्भे एत्थेव विजयम्मि सिरित्थलगे पट्टणे जक्खदाससन्नियस्य चण्डालस्स माइजक्खाए भारियाए जमलभाउगत्ताए त्ति | जाया कालक्कमेणं । पइट्ठावियाई नामाइं तुझं' कालसेणो, इयरस्स चण्डसेणो त्ति । पत्ता य जोव्वणं । अन्नया आहेडयनिमित्तं गया लच्छिपव्वयं, वावाइओ कोलो । सो य एयम्मि चेव निहाणयपए से विससिओ । पज्जालिओ जलणो । जलणपक्कं तं खाइउं पयत्ता । एत्थंतरम्मि कट्टारयं निसाणिऊण कहंचि अणत्थदंडओ चेव धणि खणमाणेण उवलद्धो निहाणयकलसस्स एगदेसो चंडसेणेणं । पवतो गोविउं, लक्खिओ य तुमए । तओ दव्वलोहेणं वीसत्थो' तुमं वावाइओ तेण । उववन्नो वालुप्पहाए नरगपुढवीए पंचसागरोवमाऊ नारगो । इमो वि तद्दव्वलोभेण तं चेव देसं अमुंचमाणो अइक्कतेसु कइवयवरिसेसु अभुंजिऊण तं दव्वं अन्नवेरियचडालविनिवाइओ समाणो उप्पन्नो तमाभिहाणाए नरयपुढवीए अट्ठारससागरोवमाऊ नारगो ति । तओ तुमं पडिपुण्णे अहाउए नरगाओ क्रमेण प्राप्त इममुद्देशम् । उपविष्टो नीपपादपस्याऽधः । अत्रान्तरे गिरिगुहामुखगतेन दृष्टोऽसि सिंहेन । ततो लोभसंज्ञाविपर्यासितचित्तेन व्यापादितोऽसि अनेन, अयमपि च त्वया इति । उपपन्नौ च युवामत्रैव विजये श्रीस्थल के पट्टने यक्षदास संज्ञितस्य चाण्डालस्य मातृयक्षायां भार्यायां यमलभ्रातृकतया इति । जातौ कालक्रमेण । प्रतिष्ठापिते नाम्नी तव कालसेनः, इतरस्य चण्डसेन इति । प्राप्तौ च यौवनम् । अन्यदा आखेटकनिमित्तं गतो लक्ष्मीपर्वतम् । व्यापादितः कोलः । स च एतस्मिन् चैव निधानकप्रदेशे विशसितः । प्रज्वालितो ज्वलनः । ज्वलनपक्वं तं खादितुं प्रवृत्तौ । अत्रान्तरे कट्टारकं निशाण्य कथञ्चिद् अनर्थदण्डत एव धरणीं खनता उपलब्ध निधानककलशस्य एकदेशश्चण्डसेनेन । प्रवृत्तो गोपयितुम्, लक्षितश्च त्वया । ततो द्रव्यलोभेन विश्वस्तस्त्वं व्यापादि • तस्तेन । उपपन्नो बालुकाप्रभायां नरकपृथिव्यां पञ्चसागरोपमायुर्नारकः । अयमपि तद्द्द्रव्यलोभन तं चैव देशममुञ्चन् अतिक्रान्तेषु कतिपयवर्षेषु अभुक्त्वा तद् द्रव्यम् अन्यवैरिकचाण्डालविनिपातित: सन् उत्पन्नस्तमाऽभिधानायां नरक पृथिव्यामष्टादशसागरोपमायुर्नारक इति । ततस्त्वं प्रतिपूर्ण की ओर गये हुए सिंह ने तुम्हें देखा । तब लोभ की संज्ञा से विपरीत बुद्धि वाले इसने तुम्हें मार डाला और इसे भी तुमने मार डाला । तुम दोनों इसी देश के श्रीस्थल नामक शहर में यक्षदास नामक चाण्डाल की मातृयक्ष नामक स्त्री के गर्भ में जुड़वे भाई के रूप में आये । कालक्रम से तुम दोनों का जन्म हुआ। तुम दोनों के नाम रखे गये - तुम्हारा नाम कालसेन और दूसरे का चण्डसेन रखा गया। दोनों युवावस्था को प्राप्त हुए। एक बार शिकार खेलने के लिए दोनों लक्ष्मीपर्वत पर गये । सुअर मारा । वह इसी धन गाड़े हुए स्थान पर मारा गया । अग्नि जलायी । आग में पकाकर उसे ( सुअर को ) खाने लगे । इसी बीच कटार पैनी करते हुए व्यर्थ ही पृथ्वी खोदते समय चण्डसेन को गाड़े हुए घड़े का एक भाग मिला। वह छिपाने लगा, तुमने देख लिया । तब धन के लोभ से उसने विश्वस्त तुम्हें मार डाला । तुम बालुकाप्रभा नामक नरक की पृथ्वी में पाँच सागर की आयु वाले कुछ वर्ष बीत जाने पर उस धन का नरक की पृथ्वी में अठारह सागर की इसी देश के श्रीमती सन्निवेश में शालि नारकी हुए। उसने भी उस धन के लोभ से ही उस स्थान को नहीं छोड़ा। भोग किये बिना ही दूसरे वैरी चाण्डाल के द्वारा मारे जाकर तमा नामक आयुवाला नारकी हुआ । अनन्तर तुम आयु पूर्णकर नरक से निकलकर १. तुब्भंक, २. सुवासत्थोक | Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001881
Book TitleSamraicch Kaha Part 1
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1993
Total Pages516
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & literature
File Size13 MB
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