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________________ चरथो भवो ] २७३ खु एसो, पाडिओ धरणिवट्ठे । परिणओ गयकलहगो । देव्व जोएणं न वावाइओ धणो । तओ उवरि घतिऊण दंतसह 'डिच्छिस्सं' ति गहिओ करेणं, विक्खित्तो य उर्वारं विलग्गो समासन्नवत्तिणीए नगोसालाए । इओ य तयन्नकलहगपीडियाए रसियं करेणुवाए । तओ तं मोत्तूण वलिओ गयकलहगो । आरूढो धणो नग्गोहसिहरं । दिट्ठा य तेण तत्थ नीडम्मि ओलाव विमुक्का तेल्लोक्कसारा रयणावली । पच्च भिन्नाया गहिया य। चितियं च तेणं । छुट्टामि जइ गओवद्दवस्स, ता पराणेमि एवं परमवारिणो सावत्थोनरवइस्स; पच्छा जहासमोहिमविट्टिसं ति । ठिओ कंचि वेलं, अइक्कतं गयपीढं, ओइण्णो तरुवराओ, पट्टो सार्वात्थ, संपत्तो वसिमं । इओ य गया ते पुरिसा सार्वत्थि । निवेइओ वृत्तंतो नरवइस्स । कुविओ तेसिं राया-- अहो अबुद्धिया तुम्हे, जं तहाविहं पुरिसरयणं तहा एगागिणं मोत्त्गभागय त्ति । ता एस भे दंडो; तं चैव अगिहिऊण न तुम्भेहि सावत्थ पइसियव्वं । भणिऊण निच्छूढा नयरीओ | लग्गा धणं गवेसिउं । यह पियमेगाभिहाणे सन्निवेसे सत्थवाहपुत्तो । साहिओ हि वृतंतो इमस्स, इमेण विय धनमार्गेण । गृहीतः खल्वेषः । पातितो धरणीपृष्ठे । परिणतो ( तिर्यक्प्रहारवान् ) गजकलभकः । दैवयोगेन न व्यापादितो धनः । तत 'उपरि क्षिप्त्वा दन्तमुषलाभ्यां प्रत्येयिष्यामि' इति गृहीतो करेण । विक्षिप्तश्चोपरि विलग्नः समासन्नवर्तिन्यां न्यग्रोधशाखायाम् । एतश्च तदन्यकलभकपीडितया रसितं करेण्वा । ततस्तं मुक्त्वा वलितो गजकलभकः । आरूढो धनो न्यग्रोधशिखरम् । दृष्टा च तेन तत्र नीडे श्येनविमुक्ता त्रैलोक्यसारा रत्नावली, प्रत्यभिज्ञाता गृहीता च । चिन्तितं च तेन । छुटामि यदि गजोपद्रवात् ततः परानयामि एतां परमोपकारिणः श्रावस्तीनरपतेः । पश्चाद् यथासमीहितमनुष्टास्यामीति । स्थितः काञ्चिद् वेलाम् । अतिक्रान्तं गजयूथम् । अवतीर्णस्तरुवरात् । प्रवृत्तः श्रावस्तीम् । सम्प्राप्तो वसतिम् । इतश्च गतास्ते पुरुषाः श्रावस्तीम् । निवेदितो वृत्तान्तो नरपतये । कुपितस्तेभ्यो राजा - अहो ! अबुद्धिका यूयम् यत् तथाविधं पुरुषरत्नं तथैकाकिनं मुक्त्वाऽगता इति । तत एष युष्माकं दण्डः, तमेवागृहीत्वा न युष्माभिः श्रावस्तीं प्रवेष्टव्यमिति भणित्वा निःक्षिप्ता (निष्कासिताः) नगरीतः । लग्ना धनं गवेषयितुम् । दृष्टश्च तैः प्रियमेलकाभिधाने सन्निवेशे सार्थवाहपुत्रः । कथित दौड़ा । इसे ( धन को पकड़ लिया और जमीन पर पटक दिया। हाथी के बच्चे ने तिरछा प्रहार किया । भाग्य से धन मरा नहीं | तब ( उसने ) ऊपर फेंककर दाँत रूपी दो मूसलों से फेंकूंगा ऐसा सोचकर सूँड़ से पकड़ लिया । (उसके द्वारा) फेंका गया (वह) समीपवर्ती वटवृक्ष की शाखा में फँस गया । इधर दूसरे हाथी के बच्चे से पीड़ित होकर हथिनी ने शब्द किया । तब उसे छोड़कर हाथी का बच्चा मुड़ गया । धन वटवृक्ष के शिखर पर चढ़ गया । वहाँ पर उसने बाजपक्षी के द्वारा घोंसले में छोड़ी हुई तीनों लोकों की सार ( अथवा त्रैलोक्यसार नाम वाली) रत्नावली देखी और पहिचान कर ले ली। उसने सोचा कि यदि हाथी के उपद्रव से बचूंगा तो परम उपकार करने वाले श्रावस्ती के राजा को वापिस कर दूंगा । बाद में इष्टकार्यं करूंगा । कुछ समय तक वहीं बैठा रहा। हाथी का झुण्ड चला गया। (यह) वृक्ष से उतरा । श्रावस्ती की ओर चला । बस्ती में पहुँचा । वृत्तान्त निवेदन किया । उनके ऊपर राजा कुपित पुरुषरत्न को अकेला छोड़कर आ गये । अत: तुम प्रवेश मत करना" - ऐसा कहकर नगरी से निकाल इधर वे आदमी श्रावस्ती गये । (उन्होंने ) राजा से हुआ - "अरे तुम 'लोग बुद्धिहीन हो जो कि उस प्रकार के लोगों का दण्ड यही है कि उसे बिना साथ लिये श्रावस्ती दिया । (वे लोग धन को खोजने में लग गये । उन्होंने प्रियमेलक नामक सन्निवेश में वणिक्पुत्र को देखा। उन्होंने Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001881
Book TitleSamraicch Kaha Part 1
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1993
Total Pages516
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & literature
File Size13 MB
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