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________________ पढमो भवो] १३ भयवं ! को वि याणेण माणो कओ त्ति ? भयवया भणियं---सुण, एत्थ चेवाणंतरजम्मे पवत्ते मयणमहूसवे, निग्गयासु विचित्तवेसासु, नपरचच्चरोसु तरुणजणवंदपरिगएण बहुजणपसंसणिज्जं वसंतकीलमणुह वंतेण दिट्ठा समासन्नचारिणी वत्थसोहगचच्चरि त्ति। दळूण य अन्नाणदोसेणं जाइकुलाइ गविएणं 'कहं नीयच्चरी अम्हाण चच्चरी { समासन्नं परिव्वयइ' त्ति कयत्थिया वत्थसोहगा । पहाणो त्ति करिथ दढयरं कयत्थिऊण संजमिथसव्वगत्तो नेयाविओ चारय ऊसदिन्नो। एत्थंतरम्मि गरुपमाणपरिणामवत्तिणा बद्धं परभवाउं । निवत्ते य मयणमहसवे नयरलोएण मोयाविओ ऊसदिन्नो । एसो यं तक्कम्मपरिणाभवसओ मरिऊण एत्थ उववन्नो त्ति । तओ मए चितियं-अहो ! अप्पसुहं नियाणं बहुदुक्खफलं, धिगत्थु संसारजासस । ता पुच्छामि भयवंतं 'किंपज्जवसाणमेयं नियाणं? किं वा एस भविओ अभविओ वा ? सिद्धिगामी असिद्धिगामी संपत्तबीओ वा न वा ! त्ति चितिऊण पुच्छ्यिं मए। तओ भयवया भणियं । सुण, जंपज्जवसाणमेयं नियाणं। इओ सुणयभवाओ एस अहाउयं शृण, अत्र चैव अनन्तर जन्मनि प्रवृत्ते मदनमहोत्सवे, निर्गतासु विचित्र वेश्यासु नगरचत्वरीष तरुणजनवृन्दपरिगतेन बहुजनप्रशंसनीयां वसन्तक्रीडां अनुभवता दृष्टा समासन्नचारिणी वस्त्रशोधकचत्वरी इति । दृष्ट्वा अज्ञानदोषेण जातिकुलादिगवितेन कथं नीचचत्वरी अस्माकं चत्वर्यां समासन्न परिव्रजति' इति कथिता वस्त्रशोधकाः। प्रधानं इति कृत्वा दृढतरं कदर्थयित्वा संयमित (बद्ध)-सर्वगात्रः नायितश्चारकैः पुष्यदत्तः । अत्रान्तरे गरुकमानपरिणामवतिना बद्धं परमवायुष्कम् । निवृत्ते मदनमहोत्सवे नगरलोकेन मोचितः पुष्यदत्तः । एष च तत्कर्मपरिणामवशत: मृत्वा अत्र उपपन्न इति । ततो मया चिन्तितम्- अहो ! अल्पसुखं निदानं बहुदुःखफनम्, धिगस्तु संसारवासम् । ततः पृच्छामि भगवन्तम् 'किं पर्यवसानमेतद् निदानम् ? किं वा एष भव्यः अभव्यो वा ? सिद्धिगामी असिद्धिगामी सम्प्राप्तबीजो वा न वा ?' इति चिन्तयित्वा पृष्टं मया। ततो भगवता भणितम्-शृणु, यत्पर्यवसानमेतद् निदानम् । इतः शुनकभवाद् एष यथायुष्क जन्म में मदनमहोत्सव आने पर जब नाना देशवासी (या नाना वेश्याओं) तथा तरुण लोगों से युक्त नगर की संगीत मण्डलियाँ निकल रही थीं तब अनेक लोगों के द्वारा प्रशंसनीय वसन्तक्रीडा का अनुभव करते हुए समीप में ही चलने वाली धोबियों की मण्डली दिखाई दी। ___ उसे देखकर अज्ञानदोष से जाति.कुलादि से गवित होकर, 'नीच लोगों की संगीत मण्डली हमारी मण्डली के साथ-साथ कैसे चल रही है ?' इस प्रकार धोबियों का तिरस्कार किया । पुष्यदत्त को प्रधान मानकर, सिपाही उसका तिरस्कार कर और पूरा शरीर बांधकर ले गये। इसी बीच अत्यधिक मानरूप परिणाम के वशवर्ती हो उसने दूसरे जन्म की आयु बाँध ली। मदनमहोत्सव सम्पन्न हो जाने पर लोगों ने पुष्यदत्त को छुड़ाया । यह उस कर्म के परिणामवश मरकर यहाँ उत्पन्न हुआ है।" तब मैंने विचार किया-अहो! अल्प सुख का कारण तथा बहुत दुःखरूप फल से युक्त संसारवास को धिक्कार ! अब मैं भगवान् से पूछता हूँ कि इसका यह निदान कब नष्ट होगा ? अथवा यह भव्य है या अभव्य ? सिद्धि को प्राप्त करनेवाला है या सिद्धि को प्राप्त नहीं करने वाला है ? धर्मरूप बीज की इसे प्राप्ति होगी या नहीं ? ऐसा विचार कर मैंने पूछा। तब भगवान् ने कहा, 'सुनो, यह कि इसका निदान (कारण रूप संसार) समाप्त होगा। आयु पूरी कर इस १. सुह, २. कुजवलाइ, ३. वत्ते। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001881
Book TitleSamraicch Kaha Part 1
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1993
Total Pages516
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & literature
File Size13 MB
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