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________________ २०६ य 'वाएज्जसि संखं। ठइया उड्ढिया' जउसारीकया य। वाइओ' तेण संखो। विनिग्गओ से सद्दो, उवलद्धो राइणा नायरेहिं । न य तस्स निग्गमणछिद्दमुवलद्धं ति । एवं इहावि भवे, को विरोहो त्ति? पिंगण भणियं---भयवं ! न एवमेयं ति। सुण । इहेवेगो तक्करजुवाणओ मित्तेण मे कालदंडवासिएण मम वयणाओ तुलाए तोलिऊण गलकरमोडएण वावाइओ। सो य पुणो वि तोलिओ जाव जत्तिओ सजीवो, तत्तिओ अजोवो वि । अओ अवगच्छामो, न अन्नो जीवो; अन्नहा ऊणगरूवो होतो त्ति। भगवया भणियं-भद्द ! जं किचि एयं । सुण, इहेगेणं गोवालेण वायभरिओ वत्थिपुडगो तुलाए तोलाविओ, रिक्को पुणो वि तोलाविओ, जाव जत्तिओ भरिओ, तत्तिओ रिक्को वि। अह य अन्नो तओ वाओ त्ति । अह मन्नसे, सो मणागं उणगो त्ति । एवं च होतगे इयरम्मि वि समो पसंगो। पिंगकेण भणियं-भयवं! न एवमेयं ति। सुण, इहेव नयरे मित्तण मे कालदंडवासिएण मम पुरुषः सशङ्खक एव ऊध्विकायां प्रक्षिप्तः, उक्तश्च 'वादय शङ्खम । स्थगिता ऊध्विका जतुसारीकृता च । वादितस्तेन शङ्खः । विनिर्गतस्तस्य शब्दः, उपलब्धो राज्ञा नागरैः । न च तस्य निर्गमनच्छिद्रमपलब्धमिति । एवमिहाऽपि भवेत, को विरोध इति ? पिङ्गकेन भणितम् -भगवन् ! नैवमेतद् इति । शृणु। इहैवैकः तस्करयुवको मित्रेण मम कालदण्डपाशिकेन मम वचनात् तुलायां तोलयित्वा गलकरमोटकेन व्यापादितः। स च पुनरपि तोलितः। यावद् यावान् सजीवः, तावान् अजीवोऽपि। अतोऽवगच्छामः, न अन्यो जीवः, अन्यथा ऊनकरूपोऽभविष्यद् इति । भगवता भणितम्-भद्र ! यत् किञ्चिद् एतत् । शृणु, इहैकेन गोपालेन वातभतो वस्तितुटकस्तुलायां तोलितः, रिक्तः पुनरपि तोलितः, यावद् यावान भतः, तावान् रिक्तोऽपि । अथ च अन्यस्ततो वात इति । अथ मन्यसे, स मनाग ऊनक इति । एवं च भवति इतरस्मिन्नपि समः प्रसङ्गः । पिङ्गकेन भणितम -भगवन् ! न एवमेतद् इति । शृण. इहैव नगरे . .. कर उसे शंख सहित अविका (शयनगृह विशेष) में पहुँचा दिया और कहा---'शंख बजाओ।' अविका (शयनगृह विशेष) को बन्द करा दिया और (दरवाजों वगैरह में) लाख भरवा दी। उसने शंख बजाया। शंख का शब्द निकला। राजा और नगरनिवासियों ने उसे सुना, किन्तु शंख की आवाज़ के निकलने का छेद प्राप्त नहीं हुआ। इसी प्रकार से यहां भी होना चाहिए। (इसमें) क्या विरोध है ?" पिंगक ने कहा-'भगवन् ! ऐसा नहीं है । सुनो, यहाँ पर मेरे मित्र कालदण्डपाशिक ने मेरे कहने के अनुसार एक चोर युवक को तराजू पर तोलकर हाथ से गला दबाकर मार डाला। उसे फिर तोला गया। जितना वह जीवित था उतना ही मरा निकला । अतः जानता हूं कि जीव भिन्न नहीं है नहीं तो मृत शरीर (अवश्य ही) कम हो जाना चाहिए था।" भगवान् ने कहा-"भद्र ! एक बात यह है-सुनो, यहाँ पर एक ग्वाले ने हवा भरी हुई बकरे की खाल की मसक को तुला पर तोला, खाली करने पर पुनः तोला। जितनी भरी हुई थी, उतने ही वजन की रिक्त निकली। (यह बात आधुनिक विज्ञान के सिद्ध है।) यदि वायु को जीव से भिन्न मानो अथवा उससे न्यून मानो तो ऐसा दूसरी जगह भी मानना पड़ेगा।" पिंगक ने कहा-"भगवन् ! नहीं, यह ऐसा है, सुनो १. उडुढिणा, २, पकाइओ-क । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001881
Book TitleSamraicch Kaha Part 1
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1993
Total Pages516
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & literature
File Size13 MB
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