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________________ ३५४ [समराइज्यकहा अव्वत्तं चेव जंपियं तीए 'तस्स चेवादसणं' ति। तओ मए तीए, साहारणत्थं अलियं चेव जंपियं । सामिणि, धीरा होहि, उवलद्धा तस्स मए पउत्ती, विन्नविस्सं, सामिणि, तमंतरेण-तओ विहसियं तीए, दिन्नं च मे कडिसुत्तयं । एत्थंतरम्मि समागया से जणणी, भणिया य तीए। जाय विलासवइ, सारेहि वीणं, जओ आणत्तं महाराएण 'अज्ज तए वीणाविणोओ कायक्वो' ति। तओ गुरुयणलज्जालुयाए जंपियं तीए-जइ एवं, ता लहुं वीणायरिणि सद्देहि । सद्दिया वीणायरिणी । एत्यंतरम्मि किंकायव्वंमढा अविसज्जिया चेव रायध्याए निग्गया रायगेहाओ, आगया सभवणं, निरूविओ विसेसेण, न लद्धा य तस्स पउत्ती। ता किं पुण अहं सामिणीए विन्नविस्सं ति समद्धासिया चितापिसाइयाए। ता एयं मे उव्वेयकारणं ति। मए भणियं-परिच्चय चितापिसाइयं, जाणामि अहयं तं जवाणयं । ता तहा करिस्सं, जहा ते सामिणी निव्वुया भविस्सइ ति । अणंगसुंदरीए भणियं---साहेहि ताव, कह तमं जाणासि, को वा सो जुवाणओ। मए भणियं-अप्पाणनिव्विसेसो वयंसओ, अहवा सामिसालो, अओ वियाणामि । सो पुणो सेयवियाहिवस्स महारायजसवम्मणो पुत्तो सणंकुमारो नाम । तस्स पेक्ष्य सखीजनमव्यक्तमेव जल्पितं तया 'तस्यैवादर्शनम' इति । ततो मया तस्याः सन्धारणार्थमलोकमव जल्पितम्-स्वामिनि ! धीरा भव, उपलब्ला तस्य मया प्रवृत्तिः, विज्ञपयिष्यामि स्वामिनि ! तमन्तरेण (अवसरण)। ततो विहसितं तया, दत्तं च मे कटिसूत्र कम् । अत्रान्तरे समागता तस्या जननी । भणिता च तया-जाते विलासवति ! सारय वीणाम्, अतः आज्ञप्तं महाराजेन 'अद्य त्वया वीणाविनोदः कर्तव्य' इति । ततो गुरुजनलज्जालुतया जल्पितं तया-यद्येवं ततो लघु वीणाचार्या शब्दय । शब्दिता वीणाचार्या । अत्रान्तरे किंकर्तव्यमढा अविजितैव राजदुहित्रा निर्गता राजगेहात्, आगता स्वभवनम्, निरूपितो विशेषेण, न लब्धा च तस्य प्रवृत्तिः। ततः किं पुनरहं स्वामिन्यै विज्ञपयिष्यामि' इति समाध्यासिता चिन्तापिशाचिकया। तत एतन्मे उद्वेगकारणमिति । मया भणितम्-परित्यज चिन्तापिशाचिकाम, जानाम्यहं तं युवानम्। ततस्तथा करिष्यामि यथा ते स्वामिनी निर्वता भविष्यतीति । अनङ्गसुन्दर्या भणितम् -कथय तावत्, कथं त्वं जानासि, को वा स युवा ? मया भणितम्-आत्मनिर्विशेषो वयस्यः, अथवा स्वामी, अतो विजानामि । स पुनः श्वेतविकाधिपस्य महाराजयशोवर्मणः पुत्रः सनत्कुमारो नाम । तस्य क्रीडानिमित्रमनङ्गनन्दनं 'स्वामिनी ! आपको क्या कष्ट है ?' अनन्तर कामविकार की उग्रता से सखीजनों की अपेक्षा न कर उसने अव्यक्त वाणी में कहा-'उसी का दर्शन न होना।' तब मैंने उसे धैर्य बंधाने के लिए झूठ-मूठ कह दिया- 'स्वामिनी ! धैर्य रखो, मुझे उसके विषय में जानकारी मिली है, स्वामिनी को अवसर आने पर बतलाऊँगी।' तब वह हंस पड़ी (मुस्करायी) और मुझे करधनी (कटिसूत्र) दी। इसी बीच उसकी मां आ गयी। उसने (माता ने) कहा'पुत्री विलासवती ! वीणा बजाओ, क्योंकि महाराज ने आज्ञा दी है कि आज तुम्हें वीणा विनोद करना है। तब बड़ों के प्रति लज्जालु होने के कारण उसने कहा-'यदि ऐसा है तो शीघ्र ही वीणाचार्य को बुलाओ।' वीणाचार्य को बुलाया गया। इसी बीच मैं किंकर्तव्यमूढ़ होकर राजपुत्री को विदा न करने पर भी यकायक राजभवन से निकल गयी और अपने भवन पर आ गयी । विशेष रूप से देखा, किन्तु उस व्यक्ति के विषय में जानकारी प्राप्त नहीं हुई। अनन्तर स्वामिनी को मैं क्या निवेदन करूंगी, इस चिन्तारूपी पिशाची से आक्रान्त होकर बैठी हूँ। तो यह मेरे उद्वेग का कारण है ।' मैंने कहा- 'उस चिन्तारूपी पिशाची को छोड़ो, मैं उस युवक को जानता हूँ । (तो) वैसा करूँगा जैसे तुम्हारी स्वामिनी सुखी हों।' अनंगसुन्दरी ने कहा-'तो कहो, तुम कैसे जानते हो, वह युवक कौन है ?' मैंने कहा-'अपना ही मित्र है, अथवा स्वामी है, अत: जानता हूँ। वह श्वेतविका के १. जहा एसा ते-ख। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001881
Book TitleSamraicch Kaha Part 1
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1993
Total Pages516
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & literature
File Size13 MB
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