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________________ पंचमो भवो ] ३५३ चेव असपाइयओयणं मं अवगच्छऊण निम्मरुक कंठा पराहोण हियया संकेत दूसहसरीरसंतावं परिच्चइय यणीयं अवलंब सहोयगं' उवरितलमारूढा । दक्खिणाणिलेण य सविसेसपज्जलिज्जं तनयणाणला उन्हं च दोहं च सय तं चैव व्यमग्गुद्दे पुलोइडं पवत्ता । पव्वालिया य से अहिययरं बाहसलिलेण दिट्ठी । तओ सहमा चेव झगझगारवमुहल मणिवलयं विहुणिय करपल्लवं अवहत्थिय अंगसंधारयं सहियायणं मोहमुवगय त्ति । तओ ससंभंतो उट्टिओ अहं, भणिओ य वसुभूई -- वयस्स, कहि साहिययादयारिणी, दंसेहि मे, अलं तीए अच्चाहिए जीविएण' । वसुभूइणा भणियं - देव, वत्तं खु एयं, कहावसाणं पिता हियाणंदकारयं चेव, तं सुणउ देवो । तओ लज्जावणयवयणकमलं ईसि विहसिऊण वन्नो अहं । वसुभूइणा भणियं तओ, देव, निमिया सहियाहि उच्छंगसयणिज्जे, वीजिया मए बाहसलिलसित्तेण तालियंटेण, दिन्नं च से सहावसोय लवच्छत्थलम्मि चंदणं, उवणीओ मुणालियाबलहारो, लद्धा कहवि तीए चेयणा, उम्मिल्लियं अलद्धनिद्दाक्खेयपाडलं लोयणजुयं । मए भणियं - सामिणि, किं ते बाहइ त्ति । तओ उक्कडयाए मयणवियारस्स अणवेक्खिऊग सहियणं एवा सम्पादित प्रयोजनां मामवगत्य निर्भरोत्कण्ठा पराधीनहृदया संक्रान्तदुःसहशरीरसन्तापं परित्यज्य शयनीयमवलम्ब्य सखीजनमुपरितल मारूढा । दणिक्षानिलेन च सविशेषप्रज्वाल्यमानमदनानला उष्णं च दीर्घ च निःश्वस्य तमेव राजमार्गोद्देशं द्रष्टुं प्रवृत्ता । छादिता च तस्या अधिकतरं वाष्पसलिलेन दृष्टिः । ततः सहक्षेत्र झणझारवमुखरमणिवलयं विधूय करपल्लव मपहस्तयित्वाऽङ्ग सन्धारकं सखीजनं मोहमुपगतेति । ततः ससम्भ्रान्त उत्थितोऽहम्, भणितश्च वसुभूतिः । वयस्य ! कुत्र सा हृदयानन्दकारिणी ? दर्शयने, अलं तस्या अत्याहिते ( प्राणान्तकष्टे) जीवितेन । वसुभूतिना भणितम् - देव ! वृत्तं खल्वेतत्, कथावसानमपि तावद् हृदयानन्दका रकमेव, तच्छु णोतु देवः । ततो लज्जावनतवदनकमलमीषद विहस्य निपन्नो ( सुप्तोऽहम् । वसुभूतिना भणितम् - ततो देव ! न्यस्ता सखीभिरुत्सङ्गशयनीये, वीजिता मया वाष्पसलिलसिक्तेन तालवृन्तेन दत्तं च तस्य स्वभावशीतलवक्षःस्थले चन्दनम, उपनीतो मृणालिकावलयहारः, लब्धा कथमपि तया चेतना, उन्मिलितमलब्धनिद्राखेदपाटलं लोचनयुगम् । मया भणितम् - स्वामिनि ? किं ते बाधते इति ? तत उत्कटतया मदनविकारस्यान कामविकार मे ही मुझे कार्य पूरा न करने वाली जानकर, अत्यन्त उत्कण्ठा से पराधीन हृदयवाली शरीर में दुःसह सन्ताप युक्त हो शय्या को छोड़कर सखीजनों के सहारे महल के ऊपर चढ़ गयी । दक्षिण दिशा की वायु के द्वारा जिसकी कामाग्नि विशेष रूप में प्रज्वलित हो रही थी, ऐसी वह गर्म और लम्बी साँस लेकर उसी राजमार्ग की ओर देखने लगी । अत्यधिक आंसुओं के जल से उसके नेत्र आच्छादित हो गये । अनन्तर यकायक ही जिसके मणियों का समूह झन-झन शब्द में मुखरित हो रहा है, हाथ रूपी पल्लव को कँपाकर अंग को सँभाले हुए सखीजनों के गले से हाथ हटाकर मूच्छित हो गयी । तब घबड़ाकर मैं उठ गया । और वसुभूति से कहा, 'मित्र ! हृदय को आनन्द देने वाली वह कहाँ है ? मुझे दिखाओ, उसका अनिष्ट होने पर मेरा प्राण धारण करना व्यर्थ है ।' वसुभूति ने कहा, 'यह तो कहानी है, कहानी की समाप्ति भी हृदय को आनन्द देने वाली है, उसे महाराज सुनिए ।' तब लज्जा से जिसका मुखकमल नीचा हो गया है - ऐसा मैं कुछ मुस्कराकर लेट गया । वसुभूति ने कहा - 'अनन्तर महाराज ! सखियों ने गोदरूपी शय्या में उसे रख लिया । मैंने आँसुओं के जल से सींचे हुए पंखे से हवा की ओर उसके स्वभाव से शीतल वक्षस्थल पर चन्दन लगाया, कमलनाल का गोलहार लागी उसे किसी प्रकार होश आया । निद्रा न आने के खेद से लाल-लाल दोनों नेत्रों को उसने खोला । मैंने कहा - ख, ४ जीएण खं, ५. सुणादु - ख । १. सयणि, २ सहियणख ३ नियकर " Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001881
Book TitleSamraicch Kaha Part 1
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1993
Total Pages516
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & literature
File Size13 MB
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