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________________ [समराइच्च कहा रमणादयारिणो पंचबाणस्स सासणं । तीए भणियंत्र याणामि खंडियं न पंडियं ति । एत्तिओ संतावो, जं से मणोरहविसओ न नज्जइ । मए भणियं - 'कहं विय' । तीए भणियं -सुण । पवते मयणमहूसवे निग्गयासु' नयरचच्चरीसु चच्चरियामेत्तसंगगए दिट्टो इमोए - अणुमाणओ विद्याणामि - मुत्तिमंतो विय कुसुमाउहो कोवि जुवाणओ । अन्नहा कह ईइसस्स कन्नयारयणस्स अण इसे ' वरे अहिलासो त्ति । न पत्थइ पंकयसिरी हढवणाई । मुक्का य तोए तस्सुवरि सहत्थगुत्था बलमालिया, निवडिया से इमी वि य कंठदेसे मणोरहेहिं । तओ उवरिहत्तमवलोइऊण निमिया य तेणं अन्नजणसंपाय भीरुययाए घेत्तण तीए हिययं पिव कंठंमि । अइकंतोय सो । विलासवई विय तप्पभूइमेव परिचत्तनिययवावारा तहा कया वम्महेण, जहा अविक्खि पिन पारीयइति । विन्नाओ य एस वृत्तंतो मए बब्बरियासयासाओ, पुणो रायध्याओ त्ति । समासासिया सामए । सामिणि, अलं विसाएणं, संवाएमि सामिण हिययवलन हेण । न खंडिज्जइ कोमुई मयलंछणेणं ति । भणिऊण पणिहिलोयणेहिं निरूविओ सो, न उण उवलद्धो त्ति । तओ य सा अज्ज मयणवियारओ ३५२ रतिमन आनन्दकारिणः पञ्चबाणस्य शासनम् ? तया भणितम्- - न जानामि खण्डितं न खण्डितमिति । एतावान् पुनर्मे संताप, यत्तस्या मनोरथविषयो न ज्ञायते । मया भणितम् - 'कथमिव' । तया भणितम् - शृणु । प्रवृते मदनमधूत्सवे निर्गतासु नगरचचर्च शेषुचर्च रिकामात्रसङ्गतया दृष्टोऽनया - अनुमानतो विजानामि, मूर्तिमानिव कुसुमायुधः कोऽपि युवा । अन्यथा कथमीदृशस्य कन्यारत्नस्यानीदृशे वरेऽभिलाष इति ? न प्रार्थयते पङ्कजश्रीहंठवनानि । मुक्ता च तया तस्योपरि स्वहस्तग्रथिता बकुलमालिका, निपतिता तस्येयमपि च कण्ठदेशे मनोरथैः । तत उपरिभूतमवलोक्य स्थापिता च तेनान्यजनसम्पातभीरुकतया गृहीत्वा तस्या हृदयमिव कण्ठे । अतिक्रान्तश्च सः । विलासवत्यपि च तत्प्रभृत्येव परित्यक्तनिजकव्यापारा तथा कृता मन्मथेन यथाऽवेक्षितुमपि न पार्यते ( शक्यते) । विज्ञातश्चैष वृत्तान्तो मया बर्बरिका (चेटा) सकाशात्, पुना राजदुहितुरिति । समाश्वासिता सा मया - स्वामिनि ! अलं विषादेन, सम्पादयामि स्वामिनी हृदयवल्लभेत । न खण्डयते कौमुदो मृगलाञ्छनेनेति भणित्वा प्रणिधिलोचनैर्निरूपितः सः, न पुनरुपलब्ध इति । ततश्च सा अद्य मदनविकारत आशा का भगवान वीतराग के समान किसने खण्डन किया ?' उसने कहा-' -'मैं नहीं जानती, खण्डित किया अथवा नहीं । पुनश्च मुझे इतना ही दुःख है कि उसके मनोरथ का विषय ज्ञात नहीं हो रहा है।' मैंने कहा'कैसे ?' उसने कहा- 'सुनो । मदनमहोत्सव आने पर नगर की संगीत मण्डलियाँ निकलने पर, मात्र संगीत मण्डली से युक्त इसने शरीरधारी कामदेव के समान कोई युवक देखा - ऐसा मैं अनुमान करती हूँ, नहीं तो ऐसी कन्यारत्न की जिसके समान कोई नहीं है - ऐसे वर के प्रति अभिलाषा क्यों होती ? कमलों की शोभा कुम्भीवन को नहीं चाहती है । उसने उसके ऊपर अपने हाथ से गूँथी हुई मौलसिरी की माला छोड़ी ! यह भी मनोरथों से उसके कण्ठ में गिरी। उसने ऊपर देखकर दूसरे लोगों पर न गिर पड़े, इस भय से उसके हृदय के समान कष्ठ में धारण कर ली। वह निकल गया । विलासवती ने उसी समय से सभी कार्य छोड़ दिये और काम ने उसे वैसा बना दिया कि देखा नहीं जा सकता है ।' मुझे यह वृत्तान्त बर्बरिका (चेटी) के समीप से, और फिर राजदुहिता से ज्ञात हुआ । मैंने उसे आश्वासन दिया'स्वामिनि ! विषाद मत करो, स्वामिनी को हृदयवल्भ से मिला दूंगी। कौमुदी (चांदनी) को चन्द्रमा तोड़ता नहीं है' — ऐसा कहकर ध्यान लगाकर उसने नेत्रों से देखा, किन्तु वह प्राप्त नहीं हुआ । अनन्तर आज वह १. विजिग्यासु -ब, २ मीदिसस्सख, ३. अन्नारिसे भ ख ४ मि मालं ख, ५. प्रक्कती तमुद्देमाओ —ख, ६. तयप्पभिइमेव ख, ७. आचिक्खिरं - ख । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001881
Book TitleSamraicch Kaha Part 1
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1993
Total Pages516
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & literature
File Size13 MB
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