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________________ पंचमो भवा] ३५१ ___ गओ अहमिओ अज्ज अणंगसुंदरोगेहं। दिट्ठा मए पव्वायवयणपंकया अगंगसुंदरी, भणिया य-सुंदरि, किं पुण ते उव्वेयकारणं; आचिक्ख, जइ अकहणीयं न होइ । तोए भणियं कह तम्मि निव्वरिज्जइ दुक्खं कंडुज्जुएण' हियएण। अदाए पडिबिबं व जम्मि दुक्खं न संकमइ ॥४४०॥ मए भणियं-सुंदरि ! विरला जाणंति गुणा विरला जपंति ललितकव्वाई। __ सामन्नधणा विरला परदुक्खे दुक्खिया विरला ॥४४१॥ सहावि अत्थि मे तुह मणोरहसंपायणेच्छा । तीए भणियं--जइ एवं, ता सुण । अत्थि महारायधूया विलासवई नाम कन्नया। सा मे भिन्नदेहा वि अत्ताणनिव्विसेसा सामिसालो वि असामिसालिसोला । तीए अपच्छिमा अवत्था व इ। तओ मए भणियं-क पुण एत्थ कारणं । तीए भणियं 'मयणवियारों'। तओ मए भणियं-केण पुण भयवया वीयरागेण विय खंडियं विणिज्जियसुरासुरस्स गतोऽहमितोऽद्य अनङ्गसुन्दरीगेहम् । दृष्टा मया म्लानवदनपङ्कजाऽनङ्गसुन्दरी, भणिता च । सुन्दरि ! किं पुनस्ते उद्वेगकारणम् ? आचक्ष्व, यद्य कथनीयं न भवति । तया भणितम् कथं तस्मिन् कथ्यते दुःखं काण्डज केन हृदयेन । आदर्श प्रतिबिम्बमिव यस्मिन् दुःखं न संक्रामति ॥४४०।। मया भणितम्-सुन्दरि ! विरला जानन्ति गुणान् विरला जल्पन्ति ललितकाव्यानि । श्रामण्यधना विरलाः परदुःखे दुःखिता विरलाः ॥४४१।। तथाप्यस्ति मे तव मनोरथसम्पादनेच्छा। तया भणितम् -यद्येवं ततः शृणु । अस्ति महाराजदुहिता विलासवती नाम कन्यका । सा मे भिन्नदेहा अपि आत्मनिर्विशेषा स्वामिन्यपि अस्वामिनी. शोला। तस्या अपश्विमाऽवस्था वर्तते । ततो मया भणितम्-किं पुनरत्र कारणम् ? तया भणितम'मदनविकारः' । ततो मया भणितम्-केन पुनर्भगवता वीतरागेणेव खण्डितं विनिर्जितसुरासुरस्य मैं यहां से अनंगसुन्दरी के घर गया था। मुझे अनंगसुन्दरी फीके मुखकमल वाली दिखाई दी। मैंने उससे कहा-'सुन्दरी ! तुम्हारे उद्वेग का क्या कारण है ? यदि अकथनीय न हो तो कहो।' उसने कहा-'जैसे दर्पण में प्रतिबिम्ब परिवर्तित नहीं होता वैसे ही जिसके हृदय में दुःख परिवर्तित नहीं होता, ऐसे उस बाण की भांति सीधे हृदय के द्वारा दुःख कैसे कहा जाता?' ॥४४०॥ मैंने कहा-'सुन्दरी! विरले व्यक्ति ही गुणों को जानते हैं, विरले ही लोग ललितकाव्यों को कहते हैं। श्रामण्य ही जिनका धन है ऐसे मनुष्य भी विरले ही हैं और दूसरों के दुःख में जो दुःखी होते हैं, वे भी विरले ही होते हैं ॥४४१॥ तथापि तुम्हारे मनोरथ को पूरा करने की मेरी इच्छा है। उसने कहा- यदि ऐसा है तो सुनो। महाराज की विलासवती नामक कन्या है । वह भिन्न देह वाली होते हुए भी मेरे प्राणों में सामान्य (प्राणों के तुल्य) है अर्थात् शरीर भिन्न होते हुए भी हम दोनों की आत्मा एक है । वह स्वामिनी होते हुए स्वामिनी न हो, इस प्रकार के स्वभाववाली है। उसकी अन्तिम अवस्था है।' तब मैंने कहा-'इसका क्या कारण है ?' उसने कहा'कामविकार ।' तब मैंने कहा-'सुर और असुरों को जीतने वाले, रति के मन को आनन्द देने वाले, कामदेव की १. दुःखे निवरः। दुःख विषवस्य कनिम्बरादेशो वा भवति । (सिद्ध, 4/४/३), २. कंदुज्ज-ख, ३. गुणे-क-ग, ४. पालंति निक्षणा नेहा-ख । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001881
Book TitleSamraicch Kaha Part 1
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1993
Total Pages516
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & literature
File Size13 MB
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