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________________ ३१. [सबराइन्हा तम्बाई लोयणाई, हिययायासकारिणो दीदीहा नीसास त्ति । ता मा संतप्प; इच्छइ सातए सह समागम, पेसिया य तीए 'सिणेहबहुमाणं बउलमालिया दूई । अन्नं च–अवहिओ विही अवस्सभवियव्वेसुं, घडेइ एस अहिमुहीहूओ नियमेण अन्नदीवगयं पि पाणिणं। करेमि अहं एत्थ कंचि उवायं ति। पडिस्सुयं मए। कओ तेण विलासवइधाविधूयाए अणंगसुंदरीए सह पसंगो। अहिगमणीयपुरिसगुणजोगमओ लग्गा य सा तस्स। अइक्कंता कवि दियहा। तओ 'न कयमिह किंचि वसुभूइणा, न पहवइ वा से मइगोयरों' तिचितयंतो मयणपरायत्तयाए गओ सयणिज्जं। तत्थ पुण मुज्छिओ विय महो विय मत्तो विय मओ विय भीओ विय गहगहिओ विय वेवमाणहियओ अप्पहतो इंदियाणं चिट्ठामि जाव थेववेलाए चेव पहठ्ठवयणपंकओ आगओ वसुभूई। वयणवियारेण लक्खियं मए, जहा कयमणेण पओयणं भविस्सइ त्ति । भणियं च तेण-भो वयस्थ, परिच्चय विसायं, अंगीकरेहि पमोयं संपन्नं ते समोहियं ति । मए भणियं-'कहं वियं' । तेण भणियं-सुण । इति ? ततो मा सन्तप्यस्व, इच्छति सा तया सह समागमम्, प्रेषिता स तया स्नेहबहुमानं बकुलमालिका दूतो। अन्यच्च अवहितो विधिरवश्यभवितव्येषु घटयत्येषोऽभिमुखीभूतो नियमेनान्यद्वीपगतमपि प्राणिनम् । करोम्यहमत्र कञ्चिदुपायमिति । प्रतिश्रुतं मया । कृतस्तेन विलासवतीधात्रीदुहित्राऽनङ्गसुन्दर्या सह प्रसङ्गः । अभिगमनीयपुरुषगुणयोगतो लग्ना च सा तस्य। अतिक्रान्ता कत्यपि दिवसाः । ततो 'न कृतमिह किञ्चिद् वसुभूतिना, न प्रभवति वा तस्य मतिगोचरः' इति चिन्तयन् मदनपरायत्ततया गतो शयनीयम् । तत्र पुनमच्छित इव, मूढ इव, मत्त इव, ग्रहगृहीत एव वेपमानहृदयोऽभवन् इन्द्रियाणां तिष्ठामि यावत् स्तोकवेलायामेव प्रहृष्ट वदन. पङ्कज आगतो वसुभूतिः। वदनविकारेण लक्षितं मया, यथा कृतमनेन प्रयोजनं भविष्यतीति । भणितं चतेन-भो वयस्य ! परित्यज विषादम्, अङ्गीकुरु प्रमोदम् , सम्पन्नं ते समीहितमिति । मया भणितम्-'कथमिव । तेन भणितम्-शृणु । अत्यधिक लाल हैं और हृदय को दुःख पहुंचाने वाली लम्बी-लम्बी साँसें ले रहे हो । अतः दुःखी मत हो । वह आपके साथ समागम की इच्छा करती है। उसने स्नेह और आदर के साथ बकुलमालिका दूती भेजी है। और फिर जो होनहार होता है उसके विषय में देव सावधान रहता है । वह दूसरे द्वीप में गये हुए प्राणी को भी सामने लाकर मिला देता है। इस विषय में मैं भी कुछ उपाय करता हूँ। मैं वचन देता हूँ।' उसने विलासवती की धाय की पुत्री अनंगसुन्दरी से संम्पर्क किया। योग्यपुरुष के गुणों से युक्त होने के कारण उसके साथ सम्पर्क हो गया। ___ कुछ दिन बीत गये । अनन्तर 'इस विषय में वसुभूति ने कुछ नहीं किया, वसुभूति की बुद्धि इस कार्य में समर्थ नहीं'--ऐसा सोचकर काम के पराधीन हुआ शय्या पर लेट गया। उस शय्या पर मानो मूच्छित के समान, मतवाले के समान, गूगे के समान, डरे हुए के समान, भूताविष्ट के समान, कांपते हुए हृदयवाला तथा इन्द्रियों को वश में न रखता हुआ स्थित था कि तभी कुछ ही समय में वसुभूति आया। उसका मुखकमल खिल रहा था। मुखाकृति से मैंने जान लिया कि इसने प्रयोजन की सिद्धि कर ली होगी। उसने कहा-'मित्र ! विषाद छोड़ो, इर्ष को अंगीकार करो, तुम्हारा इष्ट कार्य सम्पन्न हो गया।' मैंने कहा- 'कैसे ?' उसने कहा- 'सुनो! १. सणेह'"-क. २. क इवयदि -ख, ३. 'विय' पाठस्थाने सर्वत्र 'इव' पाठः क-पुस्तके: ४. अयं पाठः क-पुस्तके नास्ति, ५. किहं -ग। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001881
Book TitleSamraicch Kaha Part 1
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1993
Total Pages516
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & literature
File Size13 MB
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