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पंचमो भव]
कीलानिमित्तं अनंगनंदणं पत्थियस्स पेसिया तीए बउलमालिया, बहुमन्निया य तेणं । अणंग सुंदरीए भणियं - जइ एवं, ता अलं ते सामिसालेण, जो एवं पि सामिणीहिययं वियाणिय निरुज्जमो चिटुइ । मए भणियं - न निरुज्जमो, किं तु उवायं विचितेइ 'कहं पुण अणदिएण विहिणा एसा पावियत्व' त्ति । अनंगसुंदरीए भणियं - समाजरूवाणुराय कुलकन्नयाहरणं पि अणदिओ चेव विही । मए भणियं । अस्थि एवं किं तु अच्चंत सिणेहवंतो महाराओ सणकुमारस्स, जओ अपडिहओ सव्वत्थामेसु गइपसरो, उवन्नत्थं च तस्स सबहुमाणं महाराएण जीवणं । ता कयाइ पत्थिओ चेव देइस्सइति । ताकि एइणा । निवेएहि ताव एवं वृत्तंतं सामिणीए, चिन्तेहि य उवायं, कहं पुण एयाणं दंसणं संजाइस्सइति । अणंगसुंदरीए भणियं - निवेएमि एयं । दंसणोवाओ पुण, नेइस्सं अहं सामिण मंदिरुज्जाणं, तुमं पि य कुमारं घेत्तूण तहिं चेव सन्निहिओ हवेज्जासि त्ति । पडिस्सुयं च तं मए । संपयं तुमं पमाणं ति ।
तओ एवं सोऊण मोहदो सेणाहं सव्वसोक्खाणं पिव गओ पारं, पीईए वि य पाविओ पीई, धिईए प्रस्थितस्य प्रेषिता तया बकुलमालिका, बहुमता च तेन । अनङ्गसुन्दर्या भणितम् - यद्य वं ततोऽलं ते स्वामिना, य एवमपि स्वामिनीहृदयं विज्ञाय निरुद्यमस्तिष्ठति । मया भणितम्-न निरुद्यमः, किन्तूपायं विचिन्तयति 'कथं पुनरनिन्दितेन विधिनैषा प्राप्तव्या' इति । अनङ्गसुन्दर्या भणितमसमानरूपानुरागकुलकन्यकाहरणमपि अनिन्दित एव विधिः । मया भणितम् -- अस्त्येतत् किन्तु अत्यन्तस्नेहवान् महाराजः सनत्कुमारस्य यतोऽप्रतिहतः सर्वस्थानेषु गतिप्रसरः, उपन्यस्तं च तस्य सबहुमानं महाराजेन जीवनम् । ततः कदाचित् प्रार्थित एव दास्यतीति । ततः किमेतेन । निवेदय तावदेतं वृत्तान्तं स्वामिन्यै, चिन्तय चोपायम्, कथंपुनरेतयोर्दर्शनं संजनिष्यते इति ? अनङ्गसुन्दर्या भणितम् - निवेदयाम्येताम् । दर्शनोपायः पुनर्वेष्येऽहं स्वामिनीं मन्दिरोद्यानम् । त्वमपि च कुमारं गृहीत्वा तत्रैव सन्निहितो भवेरिति । प्रतिश्रुतं च सन्मया । साम्प्रतं त्वं प्रमाणमिति ।
तत एतच्छ्र ुत्वा मोहदोषेणाहं सर्वसौख्यानामिव गतो पारम् प्रीत्येव प्राप्तः प्रीतिम्, धृत्ये
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हृदय को जानकर निरुद्यमी होकर कि वह किस प्रकार निर्दोष विधि से
महाराज यशोवर्मा का पुत्र सनत्कुमार है । जब वह क्रीडा के लिए अनंगनन्दन उद्यान में जा रहा था तो उस राजपुत्री ने मौलसिरी की माला भेजी थी और उसने उसे आदर दिया था।' अनंगसुन्दरी ने कहा- 'यदि ऐसा है तो तुम्हारे स्वामी से कोई प्रयोजन नहीं जो कि इस प्रकार स्वामिनी के बैठा है।' मैंने कहा - ' ( वह) निरुद्यमी नहीं है किन्तु उपाय सोच रहा है प्राप्त की जा सकती है ?' अनंगसुन्दरी ने कहा- 'समान रूप और अनुराग अनिन्दित विधि है ।' मैंने कहा - 'यह ठीक है, किन्तु महाराज सनत्कुमार के स्थानों में जाने के विषय में कोई रोक-टोक न होने के कारण महाराज ने उनके के रूप में रखा है, अतः प्रार्थना करने पर कदाचित् ( कन्या को ) दे दें । अतः इससे क्या ? इस वृत्तान्त को स्वामिनी से निवेदन करो और उपाय सोचो, कैसे इन दोनों का मिलन होगा ? अनंगसुन्दरी ने कहा - 'इसे निवेदन करती हैं। मिलने का उपाय यह है कि स्वामिनी को मन्दिर के उद्यान में ले जाऊँगी, तुम भी कुमार को लेकर वहीं निकटवर्ती होना ।' उसे मैंने स्वीकार किया। अब आप प्रमाण हैं ।
वाली कन्या का हरण करना भी अत्यन्त प्रिय हैं, क्योंकि समस्त जीवन को आदरपूर्वक धरोहर
अनन्तर इसे सुनकर मोह के दोष से मैं समस्त दुःखों के पार पहुँच गया । (मैंने) प्रीति के द्वारा प्रीति को
1. जायइति ख, २. महामोह - ख ।
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