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________________ २४० [समराइचकहा वेलाउललवलीहरनिसण्णगधव्वमिहुणरमणिज्जं । होरिंदनीलमरगयमऊहपरिरंजियजलोहं ॥३४६॥ मलयाचलदरिमंदिरनिसण्णसिद्धबहुपुलइयसुवेलं । कप्परसंडमंडियहिंदकरिदलियवियडतडं ॥३५०॥ पवणधुयजललवाहयसइसरसरसंततीरतालवणं । विद्दुमलयाहिरामं सिंधुवई पवणवेगेण ॥३५१॥ एवं च जाव कइवयदियहे(हा) गच्छिंति, ताव दिन्नो धणसिरोए जोओ पुत्ववण्णिओ धणस्स । गहिओ य एसो थेवदियहेहि चेव अकयपडियारो महावाहिणा । जायं से महोयरं परिसुक्काओ भूयाओ, उस्सूणं वयणं, गंडियाओ जंघाओ, फुडिया करचरणा, न रोयइ से भोयणं बाहिज्जइ तिसाए, न चिट्ठइ पीयमुदयमुदरम्मि । तओ विसण्णो धणो। चितियं च तेण । किमेवमयंडे चेव पावविलसियं । अहवा नत्थि अयालो पावविलसियस्स । ता किं करेमि ? उत्तम्मइ वेलाकुल लवलीगहनिषण्णगान्धर्वमिथुनरमणीयम् । हीरेन्द्रनीलमरकतमयूखप्रतिरञ्जितजलौघम् ॥३४६॥ मलयाचलदरोमन्दिरनिषण्ण सिद्धवधप्रलोकितसुवेलम् । कर्पूरषण्डमण्डित-महेन्द्रकरिदलितविकटतटम् ॥३५०।। पवनधत-जललवाहत-सदासरसरसत्तीरतालवनम् । विद्रुमलताभिरामं सिन्धुपति पवनवेगेन ॥३५१॥ एवं यावत् कतिपयदिवसा गच्छन्ति तावद् दत्तो धनश्रिया योगः पूर्ववणितो धनस्य । गृहोतश्च एष स्तोकदिवसैरेव अकृतप्रतिकारो महाव्याधिना । जातं तस्य महोदरम्, परिशको मुजी, उच्छूनं वदनम्, गण्डिके (गलिते ?) जङ्घ स्फुटितो करचरणौ, न रोचते तस्य भोजनम्, बाध्यते तृषा, न तिष्ठति पीतमदकमदरे । ततो विषण्णो धनः । चिन्तितं च तेन–किमेवमकाण्डे एवं पापविलसितम्। अथवा नास्ति अकालो पापविलसितस्य । ततः किं करोमि? उत्ताम्यति में परिजनः, विषण्णा समुद्र के तटपर लवली नामक पीले रंग की एक लता से बने हुए घर में बैठा हुआ गन्धों का जोड़ा रमणीय लग रहा था। हीरा, इन्द्रनील और मरकत-मणियों की किरणों से जलसमूह रंजित हो रहा था। कपूर के समूह से जो मण्डित है तथा ऐरावत हाथी के द्वारा जिसके भयंकर तटों को उखाड़ा गया है ऐसे चित्रकूटाचल पर्वत को मलयपर्वत की गुफारूपी मन्दिर में बैठी हुई सिद्धवधुएँ देख रही थीं। वायु के द्वारा उड़ाये हुए जल के समूह से आहत किनारे का ताल का वन सदा सरस शब्द कर रहा था। वायु के वेग से समुद्र मूंगों के कारण मनोहर लग रहा था ॥ ३४६-३५१॥ इस प्रकार जब कुछ दिन बीते तब धनश्री ने धन को पूर्ववणित योग दे दिया। इसके लेने से जिसका प्रतिकार नहीं किया जा सकता, ऐसे बहुत बड़े रोग ने उसे जकड़ लिया । उसका पेट बड़ा हो गया, दोनों भुजाएँ सूख गयीं, मुंह सूख गया, जांघे गल गयीं, हाथ-पैरों में फोड़े हो गये । उसे भोजन के प्रति अरुचि हो गयी, प्यास सताने लगी, पेट में पानी भी नहीं ठहरता था। तब धन दुःखी हो गया। उसने सोचा-क्या असमय में ही पापकर्म का विलास हो गया अथवा पाप के विलास के लिए कोई असमय नहीं है। अतः क्या करूँ ? मेरे परिजन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001881
Book TitleSamraicch Kaha Part 1
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1993
Total Pages516
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & literature
File Size13 MB
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