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________________ उत्यो भवो ] २३६ -- एत्यंतर म्मि भणिओ धणसिरीए नंदओ । जहा - वावाएमो एयं गच्छामो अन्नत्थ, किं णे समुद्दतरणं । नंदएण भणियं हा न जुत्तमेयं, सामी खु एसो सम्भाविओ ८ । ता न तुमए एयं सुविणे fafafari ति । तओ चितियं धणसिरीए । न एस एयं ववसइ; ता अहं चेव केणइ उवाएण एवं करिस्सामिति । कओ तीए नागदत्तापरिव्वाइयाओ निसामिऊण आयंककारओ कालंतरनिवाई कम्मणजोगो त्ति । एत्यंतरम्मि संजत्तियं पवहणं, निमियं गरुयभंडं । तओ पसत्थदियहम्मि निग्गओ धणो, गओ वेलाउलं । दिन्नं दणाणाहाण दविणजायं । संपूइओ जलनिही । अग्घियं जाणवत्तं । आरूढो खु एसो सह परियणे । उक्खित्ता नंगरा, आऊरिओ संखकुंदधवलो सियवडो ॥ तो लंघिउ पवत्तं कच्छ हक रिमयर नियर तिमिकलियं । संखउ लाउलदेसं पायातलं व गंभीरं ॥३४७॥ जलगयजल हरप डिमापडिवारणदंसणेण अच्चत्थं । दष्पुद्ध र करिमय रुच्छलं तसं खोहियत रंगं ॥ ३४८ ॥ अत्रान्तरे भणितो धन श्रिया नन्दकः - यथा व्यापादयाव एतम्, गच्छावोऽन्यत्र, किमावयोः समुद्रतरणेन ? नन्दकेन भणितम् - हा ! न युक्तमेतद्, स्वामी खल्वेषः सद्भावितश्च ततो न त्वया एतत्स्वप्नेऽपि चिन्तयितव्यमिति । ततश्चिन्तितं धनश्रिया -न एष एतद् व्यवस्यति, ततोऽहमेव केनचिदुपायेन एतत्करिष्यामीति । कृतस्तया नागदत्तापरिव्राजिकातो निशम्य आतङ्ककारकः कालान्तरनिपाती कार्मणयोग इति । अत्रान्तरे संयात्रितं प्रवहणम्, स्थापितं गुरुकभाण्डम् । ततः प्रशस्ते दिने निर्गतो धनः गतो वेलाकुलम् । दत्तं दीनानाथेभ्यो द्रविणजातम् । सम्पूजितो जलनिधिः । अधितं यानपात्रम् । आरूढः खल्वेषः सह परिजनेन । उत्क्षिप्ता नाङ्गराः, आपूरितः शङ्खकुन्दघवलः सितपटः । ततो (यानपात्रं ) लङ्घितुं प्रवृत्तं कच्छपकरिमकरनिकरतिमिकलितम् । शङ्खकुल | कुलदेशं पातालतलमिव गम्भीरम् || ३४७॥ जलगतजलधरप्रतिमप्रतिवारणदर्शनेन अत्यर्थम् । दप्र्पोद्धुरकरिमकरोच्छलत्संक्षोभिततरङ्गम् ॥ ३४८ ॥ इसी बीच धनश्री ने नन्दक से कहा कि इसको मार डालो, दोनों दूसरी जगह चलें, हम दोनों को समुद्र पार करने से क्या लाभ ? अर्थात् समुद्र पार करना व्यर्थ है । नन्दक ने कहा- "हाय ! यह ठीक नहीं है, यह स्वामी है और सद्भाव वाला है अतः तुम्हें स्वप्न में भी ऐसा नहीं सोचना चाहिए ।" तब धनश्री ने विचार किया - यह नहीं करेगा, अतः मैं ही किसी उपाय से यह कार्य करूँगी । उसने नागदत्ता परिव्राजिका से दुःसाध्य रोग वाला कार्मणयोग (उच्चाटन प्रयोग ) सुना । जहाज पर भारी माल रखा। तब उत्तम दिन में धन निकला और समुद्र के तट पर गया । दीन और अनाथों को धन दिया, समुद्र की पूजा की, जहाज को अर्घ्य दिया और परिजनों के साथ यह जहाज पर सवार हो गया। लंगर खोल दिये और शंख तथा कुन्द के सामान सफेद वस्त्र (पाल) को लगा दिया । ( आतंक) उत्पन्न कर बाद में मार देने इसी बीच जहाज जाने लगा, अनन्तर जहाज कछुआ, करि, मगर, तिमि (एक बड़े अकारवाली समुद्री मछली) और शंख से व्याप्त, पाताल के समान गहरे स्थान को लांघने लगा। हाथी के सदृश जलगत मेघ को देखने से अत्यधिक अभिमान से मरे हुए करि और मगरों द्वारा उछाली हुई तरंगें क्षुब्ध हो रही थीं ॥ ३४७-३४८ ।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001881
Book TitleSamraicch Kaha Part 1
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1993
Total Pages516
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & literature
File Size13 MB
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