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________________ पउत्यो भयो झोणमाउं, न चितेन्ति जम्मतरं ति । अवरे' उण सुयब्भत्थपरलोयमग्गा तरुणया वि एत्थ जम्मे विवेयसामत्थेण नाऊण विज्जलयाडोवचंचलं जीयं असारयं विसयसुहाणं विवायदारुणयं च पमायचेठियस्त मच्चुभयभोया विय हरिणया उत्तत्था पावहेऊणं से वंति परलोयवंधवं चरणधम्म ति । ता अकारणं एत्थ जामवणं ति।नय विवेगिणो विडयसंसारसरूवस्स दमाइं इंदियाई। अदतेहिएपहि दमियव्वो अप्पा दोग्गईए, दमिएहि य एत्थ पसमसुहं परलोए य भवपरंपराए मोक्खसुहं ति जाणमाणो को इमे न दमेइ ? अणंगो वि य अणज्जसंकप्पमलो परिचत्तेहि अणज्जसंकप्पेहि भाविए वोयरागवयणे उवलद्ध पसमसुहसरूवे' अमुयंताण गुरुपायमूलं चितयंताण पडिवक्खभावणं कहं पहवइ त्ति ? कि वा मणाहरत्त'विसयाण? पोग्लपरिणामा हि एए फरिसरसरूवगंधसहा; विचित्तपरिणामा पोग्गला सुहा वि होऊण असुहा हति, असुहा विय सुहा; किं वा एहि अत्तगो अत्यंतरभूएहि; न एएसि संजोओ परमत्थो सुहहेऊ, अवि य दुक्खहेऊ; 'असंजोए 4 'नियसरूवपच्चासन्नाए पाणिणो परमत्थओ सुह न्तरामात । अपरे पुनः श्र ताभ्यस्तपरलोकमार्गा तरुणा अन्यत्र जन्मनि विवेकसामर्थ्येन ज्ञात्वा विद्युल्लताटोपचञ्चलं जोवित मसारतां विषयसुखानां विपाकदारुणर्ता प्रमादचेष्टितस्य मृत्युभयभोता इव हरिणका उत्त्रस्ताः पापहेतुभ्यः सेवन्ते परलोकबान्धवं चरणधर्ममिति। ततोऽकारणमत्र यौवनमिति । न च विवेकिनो विदितसंसारस्वरूपस्य दुर्दमानोन्द्रियाणि । अदान्तरेतैदमितव्य आत्मा दुर्गती । दान्तश्चात्र प्रशमसुखं परलोके च भवपरम्परया मोक्षसुखमिति जानन् क इमानि न दमयति ? अनङ्गोऽपि चानार्यसंकल्पमूलः परित्यक्तैरनार्यसंकल्पैर्भाविते वीतरागवचने उपलब्धे प्रशमसुखस्वरूपेऽमुञ्चता गुरुपादमूलं चिन्तयता प्रतिपक्षभावनां कथं प्रभवतोति ? किं वा मनोहरत्वं विषयानाम् । पुद्गलपरिणामा हि एते सरसरूपगन्धशब्दाः, विचित्रपरिणामाः पुद्गलाः शुभा अपि भूत्वा अशभा भवन्ति, अशुभा अपि च शुभाः, किंवा एतरात्मनोन्तिरभूतैः, नैतेषां संयोगः परमार्थतः सुखहेतुः, अपि च दुःखहेतुः । 'असंयोगे च निजस्वरूपप्रत्यासन्नतया प्राणिनः परमार्थतः सुखम्' इति मन्यमानं होते ही नष्ट होती हुई आयु को नहीं देखते हैं, दूसरे जन्म की चिन्ता नहीं करते हैं । पुनश्च दूसरे शास्त्र द्वारा परलोक के मार्ग का अभ्यास कर तरुण होते हुए भी इस जन्म में विवेक की सामथ्र्य से बिजली के समान भावी, फल देने में चंचल जीवन की असारता, विषय सुखों के फल की दारुणता को जानकर प्रमादपूर्वक चेष्टा किये हुए, मृत्यु से भयभीत हरिण के समान पाप के कारगों से भयभीत होकर परलोक के बान्धव चारित्ररूप धर्म का सेवन करते हैं । अतः इस संसार में यौवन अकारण है। जिन्हें संसार के स्वरूप का ज्ञान है ऐसे विवेकियों के लिए इन्द्रियों कठिनाई से दमन करने योग्य नहीं हैं । दमन की गरी ये इन्द्रियो दुर्गति में आत्मा को दमित करती हैं । दमन करने पर इस लोक में शान्तिरूम सुख और परलोक में भव-परम्परा से मोक्ष-सुख को जानता हुआ कौन इनका (इन्द्रियों का) दमन नहीं करता है ? जिन्होंने बुरे संकल्पों को छोड़ दिया है, वीतराग के वचनों की भावना की है, शान्तिरूप सुख के स्वरूप को प्राप्त कर लिया है, गुरु के चरणों को नहीं छोड़ा है, विरोधी भावनाओं का विचार कर लिया है ऐसे व्यक्ति पर कामदेव, जो कि बुरे संकज्यों का कारण है, कैसे प्रभाव दिखा सकता है ? अथवा विषयों की मनोहारिता क्या है ? ये स्पर्श, रस, रूप, गन्ध और शब्द पुद् ।लों के परिणाम हैं, विचित्र परिणाम वाले पुद्गल शुभ भी होकर अशुभ होते हैं और अशुभ भी होकर शुभ होते हैं । आत्मा से भिन्न द्रव्य होने के कारण इनसे प्रयोजन ही क्या है ? इनका संयोग ययार्थ रूप से सुख का कारण नहीं, अपितु दुःख का कारण है । अपना स्वरूप यदि समीप में है तो प्राणियों के साथ पुद्गल का संयोग न होने पर परमार्थतः सुख है-ऐसा जो मानता है उसे विषय कैसे आकर्षित कर सकते हैं ? अतः इससे क्या? पिताजी के प्रभाव से ही १. बन्नेउण-ख, 2. परमपयसरूवे-ब , ३. महोहरत्तणं-ख , ४. निययस'"--, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001881
Book TitleSamraicch Kaha Part 1
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1993
Total Pages516
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & literature
File Size13 MB
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