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________________ ३३४ [समराइच्चकहा तिमन्नमा कहं आयति विसय त्ति । ता किं एइणा । तायपहावओ चेव मे अविग्धं भविस्सइति । तओ पडियं तेण, दवावियं च घोसणापुव्वयं महादाणं, कराविया अट्ठा हिया महिमा । तओ महापुरिसक्खिमणविहोए अम्मापिईसमेओ अन्नेणंच पहाणपरियणेण पवन्नो धणो जसोहराय - रियसमीवे पव्वज्जं ति । अइकंतो कोइ कालो | अहिज्जियं सुत्तं, अब्भत्यो किरियाकलावो, भावियाओ भावणाओ, वेरगाइसओ पन्ना एकल्लविहारपडिमं । विहरमाणो य गामे एगरायं नगरे पंचरायविहारेणं समागओ को संबि । इओ यसो नंदओ गोसे तमपेच्छिऊण धणसिरिसमेओ लंघिऊण जलनिहि तीए वयणेणं थीदव्वलो - णय अगणिऊण सेट्ठिधणक्याइं सुकवाई कोसंब आगओ त्ति । समुद्ददत्तनामपरिवत्तेणं च ठिओ ती चैव नरोए । उचियसमएणं च पविट्ठो भयवं भोयरे, तत्थ वि य नंदयहिं । दिट्ठो घणसरी पञ्चभिन्नाओ य | चितियं च तीए - कहं न विवन्नो चेव सो समुद्दमज्झे वि । अहो मे अहन्नया, जं पुणो वि एसो दिट्ठोत्ति । अहवा तहा करोमि संपयं, जहा न पुणो जीवइ त्ति । एत्यंतरम्भि कथमित्याकृषन्ति विषया इति । ततः किमेतेन । तातप्रभावत एव मेऽविघ्नं भविष्यतीति । ततः प्रतिश्रुतं तेन, दापितं च घोषणापूर्वकं महादानम्, कारिता अष्टाह्निका महिमा । ततो महापुरुषनिष्क्रमणविधिना अम्बापितृसमेतोऽन्येन च प्रधानपरिजनेन प्रपन्नो धनो यशोधराचार्यसमीपे प्रव्रज्यामिति । अतिक्रान्तः कोऽपि कालः । अधीतं सूत्रम्, अभ्यस्तः क्रियाकलाप:, भाविता भावनाः, वैराग्या तिशयतः प्रपन्न एकाकि विहारप्रतिमाम् । विहरंश्च ग्रामे एकरात्रं नगरे पञ्चरात्रविहारेण समागतः कौशाम्बीम् । इतश्च स नन्दकः प्रातः तं ( धनं) अप्रेक्ष्य धनश्रीसमेतो लङ्घित्वा जलनिधि तस्या वचनेन स्त्रीद्रव्यलोभेन चागणयित्वा श्रेष्ठिधनकृतानि सुकृतानि कौशाम्बीमागत इति । समुद्रदत्तनामपरिवर्तनेन च स्थितस्तस्यामेव नगर्यांम् । उचित समयेन च प्रविष्टी भगवान् गोचरे, तत्रापि च नन्दः - गृहम् । दृष्टो धनश्रिया प्रत्यभिज्ञातश्च । चिन्तितं च तथा-कथं न विपन्न एव स समुद्रमध्ये - sपि ? अहो मेऽधन्यता, यत्पुनरपि एष दृष्ट इति । अथवा तथा करोमि साम्प्रतं यथा न पुनर्जीवमुझे विघ्न नहीं होगा । अनन्तर उसने स्वीकार किया, घोषणापूर्वक महादान दिलाया, अष्टाह्निका महोत्सव कराया, अनन्तर महापुरुष के निकलने की विधिसहित माता, पिता तथा अन्य प्रधान परिजनों के साथ धन यशोधराचार्य के समीप प्रव्रजित हो गया । कुछ समय बीत गया। सूत्र को पढ़ा, क्रियाओं के समूह का अभ्यास किया, भावनाएँ भायीं, वैराग्य की अधिकता के कारण अकेले विहार करने की प्रतिभा को प्राप्त किया, ग्राम में एक रात्रि और नगर में पाँच रात्रि रहकर विहार करता हुआ कौशाम्बी आया । इधर वह नन्दक प्रप्तः धन को न देखकर, धनश्री के साथ समुद्र पारकर धनश्री के कथनानुसार स्त्रीद्रव्य के लोभ से सेठ धन के द्वारा किये हुए उपकारों को न गिनकर कौशाम्बी में आया । 'समुद्रदत्त' ऐसा नाम परिवर्तन करते हुए नन्दक के घर प्रविष्ट हुए । धनश्री भी नहीं मरा ? ओह, मैं अधन्य हूँ जो कि कर उसी नगरी में ठहर गया । उचित समय पर भगवान् विहार ने देखा और पहचान लिया। उसने सोचा- 'वह समुद्र के बीच यह पुनः दिखाई पड़ गया । अथवा वैसा उआय करती हैं, जिससे कि यह पुनः जीवित न रहे । 'इसी बीच भिक्षा 1. ***gfen afea fa Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001881
Book TitleSamraicch Kaha Part 1
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1993
Total Pages516
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & literature
File Size13 MB
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