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________________ [ समराइन्धकहा लेहाविभूसियकरयलो, आयंबतलिणकररहो, सुसमाउत्ताहरपुडो, समसुसंगयधवलदसणो, आरत्ततिभागदीहविसाललोयणो, उत्तुंगनासियावंसो, विउलनिडालवट्टो, सुसमाउत्तकण्णपासो, कसिणसुसिणिद्धकुडिलकुंतलभारो, चंदणकयंगराओ, विमलदुगुल्लनियंसणो, महल्लमत्ताहलमालाविहूसियसिरोहरो, विमलचूडारयणपसाहियउत्तिमंगो, कि बहुणा जंपिएण-रूवं पिव रूवस्स, लावण्णं पिव लावण्णस्स, सुंदेरं पिव सुंदेरस्स, जोव्वणं पिव जोव्वणस्स, मणोरहो विय मणोरहाणं महारायस्स पुत्तो सोहकुमारो त्ति।' तओ मणियअन्नहावियारभावनिबंधणाए चितियं मयणलहए'-ठाणे खु सामिणीए अणुराओ। अहवा न कमलायरं वज्जिय लच्छो अन्नत्थ अहिरमइ । तस्स वि य भगवओ अणंगस्स विय रई न एयं वज्जिय अन्ना उचिय त्ति । चितिऊण जंपियमिमीए-'सामिणि ! सुंदरो खु सो कुमारो नियगुणेहि । जहा उण अज्जसुबुद्धी मए देवीये पणगयाए राइणा सह मंतयंतो सुनो, जइ तं तहा भविस्सइ, तओ रइसणाहो विय पंचवाणो सयलसुंदरो भविस्सइ त्ति।' कुसुमावलीए भणियं-'किं सुप्रो?' ति। तीए प्रकोष्ठदेशः, आजानुलम्बितप्रशस्तलेखाविभूषितकरतलः, आताम्रतलिनकररुहः, सुसमायुक्ताधरपुटः, समसुसंगतधवलदशनः, आरक्तत्रिभागदीर्घविशाललोचनः, उत्तुङ्गनासिकावंशः, विपुलललाटपट्टः, सुसमायुक्तकर्णपाशः, कृष्णसुस्निग्धकुटिलकुन्तलभारः, चन्दनकृताङ्गरागः, विमलदुकूलनिवसनः, महामुक्ताफलमालाविभूषितशिराधरः, विमलचूडारत्नप्रसाधित (भूषित) उत्तमाङ्गः, किं बहुना कथितेन-रूपमिव रूपस्य, लावण्यमिव लावण्यस्य, सौन्दर्यमिव सौन्दर्यस्य, यौवनमिव यौवनस्य, मनोरथ इव मनोरथानां महाराजस्य पुत्रः सिंहकुमार इति । ततो ज्ञातान्यथाविकारभावनिवन्धनया चिन्तितं मदनलेखया। स्थाने खलु स्वामिन्या अनुरागः । अथवा न कमलाकरं वर्जित्वा लक्ष्मी अन्यत्राभिरमते । तस्यापि च भगवतोऽनङ्गस्येव रतिः नैतां वजित्वाऽन्या उचितेति। चिन्तित्वा कथितमनया-स्वामिनि ! सुन्दरः खलु स कुमारो निजगणः । यथा पुनरार्यसुबुद्धिर्मया देवीप्रेषणगतया राज्ञा सह मन्त्रयन् श्रुतः; यदि तत् तथा भविष्यति, ततो रतिसनाथ इव पञ्चवाणः सकलसुन्दरो भविष्यति इति । कुसुमावल्या भणितं-'किं श्रुतः' इति । उनत शिखर के समान गोलाकार दोनों भुजाएं थीं। कोहनियाँ सुसंगत थीं । कलाइयाँ पुष्ट थीं। सुन्दर रेखाओं से विभूषित थेलियां घुटनों तक लम्बी थीं। नाखून लाल और सूक्ष्म (पतले) थे। अधरसमूह अच्छी तरह सटा हुआ था । दाँत समान, सुसंगत और सफेद थे । लम्बे और विशाल नेत्रों का तिहाई भाग लालिमायुक्त था। नासिका का पोर ऊँचा था। माथे का भाग विस्तृत था । सुन्दर कान भलीभाँति समायुक्त थे। केशों का समूह काला, चिकना और धूवराला था । चन्दन का चूर्ण लगाया गया था। स्वच्छ रेशमी वस्त्र को पहने हुए था। गर्दन महान् मुक्ताफल की माला से विभूषित थी। सिर निर्मल चूड़ामणि से अलंकृत था। अधिक कहने से क्या, महाराज के पुत्र सिंहकुमार मानो रूप के रूप, सौन्दर्य के सौन्दर्य, यौवन के यौवन तथा मनोरथों के मनोरथ थे। तदनन्तर अन्यथा विकारभाव के सम्बन्ध को जानकर मदनलेखा ने विचार किया-स्वामिनी का अनुराग उचित है अथवा कमल समूह (अथवा कमलों से भरे हुए सरोवर) को छोड़कर लक्ष्मी दूसरी जगह रमण नहीं करती है। उस कुमार के लिए भी भगवान कामदेव जिस प्रकार रति के साथ रमण करते हैं उसी प्रकार इसे छोड़कर अन्य के साथ रमण करना उचित नहीं है । इस प्रकार विचार कर इसने कहा, "स्वामिनि ! वह कुमार अपने गुणों के कारण सुन्दर है । जब मैं देवी द्वारा भेजी गयी थी तब सुबुद्धि को राजा के साथ विचार करते हुए सुना। यदि वैसा होगा तो रति से युक्त कामदेव के समान सुन्दर वे (आप सहित राजकुमार) सुन्दर स्थिति में होंगे । कुसुमावली ने कहा, "क्या सुना ?" उसने कहा, "इस प्रकार सुना -आर्य सुबुद्धि ने कहा--देव ! महाराज १. मयणलेहाए Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001881
Book TitleSamraicch Kaha Part 1
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1993
Total Pages516
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & literature
File Size13 MB
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