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बीमो भवो ]
८५ सन्जोकयं च से मयणलेहाए सुदरमत्थुरणं । निवन्ना य तत्थकुसुमावली। समप्पियाणि से कप्पूरवोडयाणि । वीसंभकहालाव-जणियपरिओसं य तालियंटेण' वीइउमारद्धा मयणलेहा। कुसुमावली पुण अयण्डदिन्नसुन्नहुंकारानिहुयमुक्कनीसासं तं चैव हियय सल्लभूयं पुणो पुणो अणुसरंती चिट्ठइ। तओ मयणलेहाए चितियं, कि पुण इमीए इमस्स अन्नहावियारभावस्स कारणं ति। पुच्छिया य तीए-'सामिणि, पत्ते इमंमि तरुणजणविन्भममुल्लोलसायरे वसंतसमए कि तुमए अज्ज कीलासंदरं गच्छंतीए गमाए वा तत्थ अच्छरियं दिट्ठति ।' तओ मयणावत्थासहावओ चेव वामत्तणेण मयणस्स अभिप्पयं पि भणियं कुसुमावलीए.--'सहि, दिट्ठो मए कीलासुदरुज्जाणंमि रइविरहिओ विय कुसुमाउहो रोहिणी विओइओ विय मयलञ्छणो, परिचत्तमइरो विव कामपालो, सचीविउत्तो विव पुरंदरो, तवियतवणिज्जसरिसवण्णो नहमऊहमंजरियचलणंगुलिविभाओ, सूनिगढसिरासंधाणो अणुवद्धपिडियाभाओ, मणहरमऊरजंघो, अंतोनिगूढजाणुसंधाणो, मयरवयणागारजाणुमत्थओ, अइसुंदरसुसंगयोरुजुयलो, विउलकडियडामोओ, मणहरतणुमज्झभाओ, पीणवित्थिण्णवच्छत्थलो, उन्नयसिहर परिवटुलबाहुजुयलो, अणुव्वणकोप्परविमाओ, पीणपकोट्ठदेसो, आजाणुलंबियपसत्थलेखया सुन्दरमास्तरणम् । निपन्ना (सुप्ता) च तत्र कुसुमावली। समर्पितानि च तस्याः कर्परवीटकानि । विश्रम्भकथाऽऽलापजनितपरितोषां च तालवृन्तेन वीजितुमारब्धा मदनलेखा । कुसुमावली पुनरकाण्डदत्तशून्यहुंकारानिभृतमुक्तनिश्वासम् च तमेव हृदयशल्यभूतं पुनः पुनस्नुस्मरन्ती तिष्ठति । ततो मदनलेखया चिन्तितम्, किं पुनरस्याः अस्य अन्यथाविकारभावस्य कारणम् इति । पृष्टा च तया-'स्वामिनि ! प्राप्तेऽस्मिन् तरुणजनविभ्रमोल्लोलसागरे वसन्त समये कि त्वया अद्य क्रीडासुन्दरं गच्छन्त्या गतया वा तत्राश्चर्यं दृष्टम् इति । ततो मदनावस्था स्वभावत एव वामत्वेन मदनस्य अनभिप्रेतमपि भणितं कुसुमावल्या-'सखि ! दृष्टो मया क्रीडासुन्दरोद्याने रतिविरहित इव कुसुमायुधः रोहिणी वियोगित इव मृगलाञ्छनः, परित्यक्तमदिर इव कामपालः, शचीवियुक्त इव पुरन्दरः, तप्ततपनीयसदृशवर्णो नखमयूखमञ्जरितचरणामलीविभागः, सुनिगूढशिरासन्धानः, अनुबद्धपिण्डिकाभागः, मनोहरमुकुरजङ्घः, अन्तर्निगूढजानुसन्धानः, मकरवदनाकारजानुमस्तकः, अतिसुन्दरसुसङ्गतोरुयुगलः, विपुलकटीतटाभोगः, मनोहरतनुमध्यभागः, पीनविस्तोर्णवक्षःस्थलः, उन्नतशिखरपरिवर्तुलबाहुयुगलः, अनुल्वणकुर्परविभागः, पीनबिछाया। वहाँ पर कुसुमावली पड़ गयी। उसे कपूर वासित पान का बीड़ा दिया गया। विश्वासपूर्वक कथाओं को कहने से उत्पन्न सन्तोष से मदनलेखा पंखे से हवा करने लगी। कुसुमावली असमय में शून्य हुंकार करती हई, धीरे-धीरे सांस छोड़ती हुई हृदय के शल्यभूत उसी का बार-बार स्मरण करती हुई पड़ी रही। पश्चात् मदनलेखा ने सोचा-इसका इस अन्य प्रकार के विकारभाव का क्या कारण है ? और उससे पूछा, "स्वामिनि ! तरुणजनों के विलास से उद्धत सापरस्वरूप इस वसन्त समय में तुमने आज क्रीडासुन्दर उद्यान में जाते हुए अथवा गये हर क्या आश्चर्य देखा!' तब काम की अवस्था में स्वभावत: कामदेव के विपरीत होने से अभिप्रेत न होते हए भी कुसुमावली ने कहा, "सखि ! मैंने क्रीडासुन्दर उद्यान में रति से वियुक्त कामदेव के समान, रोहिणी से वियूक्त चन्द्रमा के समान सिंहकुमार को देखा। वह मानो जिसने मदिरा त्याग दी हो, ऐसा कामपाल (बलराम) था, इन्द्राणी से वियुक्त हुआ इन्द्र था, तपाये हुए सोने के समान वर्ण वाले उसके चरणों की अंगुलियों का भाग नाखूनों की किरणरूप मंजरियों से युक्त था। अच्छी तरह छिपी हुई नसों के जोड़ों वाली तया गठीली उसकी पिण्डलियों का भाग था। मनोहर दर्पण (अयवा मयूर) के समान उसकी जंवाएँ थीं। उसके घुटनों के जोड़ अन्दर छिपे हुए थे, घुटने के ऊपर का भाग मछली के मुख के समान था। अतिसुन्दर तथा सुसंगत उसकी दोनों जंघाएँ थीं। उसके कूल्हे का विस्तार विपुल था। मध्यभाग मनोहर और पतला था। वक्षःस्थल मांसल और विस्तीर्ण था। १. तालीयंटेण, २. रायामपरि।
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