SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 142
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ [ समराइच्चकहा किन्न संपन्ना ते गुरुदेववाणं पूया, किन्न सम्माणियाओ सहीओ, किन्न कया अस्थिजगपडिवत्ती, किन्न गहिओ कलाकलावो, किन्न परितुट्ठो ते गुरुयणो, किन्न विणीओ ते परिवारो, किन्नाणुरत्तो सहीसत्थो, किन्न संजायइ ते समोहियं ति । आणवेदु' सामिणो, जइ अकहणीयं ण होइ' । तओ कुसुमावलीए ससंभ्रमं सहेत्थेण अलए संजमऊण भणियं - 'अत्थि पियसहोए वि नाम अकहणीयं । ता सुण, कुसुमावचयपरिस्समेण हमे जरकलावियं संवृत्तो। तज्जणियो य परिपोडेइ मं परियावाणलो । तन्निमित्ताय विजम्भइ अंगेसु अरई । न उण किंचि अन्नं उव्वेयकारणं लक्खेमि ति ।' मयणलेहाए भणियं - 'जइ एवं न गेण्हताव कप्पूरवीडंगाणि, परिवीमि ते कोलाखेयनीसहं श्रंगं । कुसुमावलीए - मे वित्थगयाए कप्पूरवोडिएहि, अलं च' परिवोइएण । एहि गच्छामो बालकयलीहरयं । तत्थ सज्जीकरेहि अत्थुरणं । जेण तहिं गयाए अवेइ एसो परियावाणत्लो त्ति ।' तओ मयणलेहाए भणियं - 'जं सामिणी आणवेइ ।' गया ओ व सभवणुज्जाणतिलयभूयं बालकयलीहरयं । ८४ किन्नो संपन्ना ते गुरुजनदेवतानां पूजा ? किं न सम्मानिताः सख्यः ? किं न कृता अर्थिजनप्रतिपत्तिः ? किं न गृहीतः कलाकलापः ? कि न परितुष्टस्ते गुरुजनः ? किं न विनीतस्ते परिवारः ? किं नानुरक्तः सखीसार्थः ? किं न सञ्जायते ते समोहितं इति । आज्ञापयतु स्वामिनी यद्यकथनोयं न भवति । ततः कुसुमावल्या ससम्भ्रमं स्वहस्तेवालकान् संयम्य भणितं - अस्ति प्रियसख्या अपि नाम अकथनीयम् । ताँवत् शृणु, कुसुमावचयपरिश्रमेण मे ज्वरकला इव संवृत्ता तज्जनितश्च परिपीडयति मां परितापानला, तन्निमित्ता च विजृम्भते अङ्गेषु अरतिः । न पुनः किञ्चित् अन्यद् उद्वेगकारणं लक्षयामि इति ।' मदनलेखया भणितम् -'ययेवं, तस्माद् गृहाण तावत् कर्पूरवीटकानि, परिवीजयामि ते क्रीडाखेदनिःसहमङ्गकम् । कुसुमावल्या भणितम् - किं मे एतदवस्थागताया पूरवकीटकैः, अलं मे परिवीजितेन । एहि गच्छामो बालकदलीगृहकम् । तत्र सज्जीकुरु मे आस्तरणम् । येन तस्मिन् गताया अपैति एष परितापानल इति । ततो मदनलेखया भणितं यत् स्वामिनी आज्ञापयति । गताश्च स्वभवनोद्यानतिलकभूतं बालकदलीगृहकम् । सज्जीकृतं च तस्या मदन जानकर मदनलेखा ने निवेदन किया, "स्वामिनि ! उद्विग्न ( बेचैन ) - सी क्यों लग रही हो ? क्या तुम्हारी गुरु और देवताओं की पूजा सम्पन्न नहीं हुई ? क्या सखियाँ सम्मानित नहीं हुईं ? क्या याचकों की प्राप्ति नहीं हुई ? क्या कलाओं के समूह को ग्रहण नहीं किया ? क्या तुम्हारे गुरुजन सन्तुष्ट नहीं हैं ? क्या तुम्हारा परिवार विनीत नहीं है ? क्या सखियों का समूह अनुरक्त नहीं है ? तुम्हारा कौन-सा मनोरथ पूर्ण नहीं हुआ ? स्वामिनि ! आज्ञा दीजिए, यदि न कहने योग्य न हो ।" तब कुसुमावली ने घबड़ाहट के साथ हाथ से बाल बाँधकर कहा, "क्या प्रिय सखी से भी न कहने योग्य बात है ? तो सुनो, फूलों के चुनने के परिश्रम से मुझे कुछ ज्वरांश-सा हो गया है, उससे उत्पन्न परितापरूपी अग्नि मुझे जला रही है। उसके कारण अंगों में अरति बढ़ रही है। अन्य कोई उद्वेग का कारण नहीं दिखाई पड़ रहा है ।" मदनलेखा ने कहा, "यदि ऐसा है तो इस कपूर वासित पान के बीड़े को लो । तेरे क्रीड़ा की थकावट को न सहने वाले अंगों को हवा करती हूँ ।" कुसुमावली ने कहा, "इस अवस्था को प्राप्त मुझे कपूर के बीड़े से क्या ? और हवा करना भी व्यर्थ है । आओ, नवीन कदलीगृह में चलें । वहाँ पर मेरा बिस्तर बिछाओ जिससे वहाँ जाने पर मेरी दुःख रूपी अग्नि बुझे ।" अनन्तर मदनलेखा ने कहा, "जो स्वामिनी की आज्ञा ।" दोनों अपने भवन के उद्यान तिलकभूत कदलीगृह में गयीं । मदनलेखा ने उसका सुन्दर बिस्तर के १. आणवेउ, २. न च । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001881
Book TitleSamraicch Kaha Part 1
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1993
Total Pages516
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & literature
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy