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________________ वीलो भयो १०३ जेण इमं अयाले चेव समणत्तणं पडिवन्नो सि ? तओ भयवया भणियं- भो महासावय ! नत्थि इदाणिमगालो सामण्णस्स । कि न पहवइ अयाले निज्जियसुरासुरो सयलमणोरहसेलवज्जासणी पियजणविओएक्कपरमहेऊ विवहजणसंवेगवडढणो मच्च'त्ति । अन्नं च-महासावा! सोहणमादाओ चरमकाले वि जइ सेविज्जइ धम्मो, सो च्चिय पढमं किमजुत्तो ? राइणा भणियं-भयवं ! नो अजुत्तो, किं तु नानिमित्तो निवेओ त्ति निव्वयकारणं पुरछामि। भयवया भणियं-संसारो चेव निव्वयकारणं, तहवि पुणो विसेसओ ओहिनाणिनियरियकहणं ति। राइणा भणियं- भयवं ! केरिसं ओहिनाणिनीयचरियकहणं ति ? भयवया भणियं, सुण - अत्थि इहेव विजए रायउरं नाम नयरं । तन्निवासी अहं भवसरूवओ चेव तयिरत्तमणो चिट्ठामि जाव, आगओ अणेयसमणसामी थेवदियहुप्पन्नोहिनाणोवलद्धपुण्णपावो अमरगत्तो नाम आयरिओ ति। जाओ य लोए लोयवाओ 'अहो अयं महातवस्सी खीणासवदारो समुप्पन्नओहिनाण प्रतिपन्नोऽसि ? । ततो भगवता भणितम्-'भो महाश्रावक ! नास्ति इदानीमकालःश्रामण्यस्य । कि न प्रभवति अकाले निर्जितसुरासुरः सकलमनोरथशैलवज्राशनिः प्रियजन वियोगैकपरमहेतुर्विबुधजनसंवेगवर्धनो मृत्युरिति । अन्यच्च-महाश्रावक ! शोभनभावात् चरमकालेऽपि यदि सेव्यते धर्मः, स एव प्रथमं किमयुक्त: ?' राज्ञा भणितं-'भगवन् ! नायुक्तः, किंतु नाऽनिमित्तो निर्वेद इति निर्वेदकारणं पृच्छामि ।' भगवता भणितम्-'संसार एव निर्वेदकारणम्, तथाऽपि पुनविशेषत अवधिज्ञानिनिजचरित्रकथनमि'ति । राज्ञा भणितम्- 'भगवन् ! किदृशमवधिज्ञानिनिजचरित्रकथनम् ।' भगवता भणितम्, 'शृणु अस्ति इहैव विजये राजपुरं नाम नगरम् । तन्निवा स्यहं भवस्वरूपत एव तद्विरक्तमनाः तिष्ठामि यावत् , आगतोऽनेकश्रमणस्वामी स्तोकदिवसोत्पन्नावधिज्ञानोपलब्धपुण्यपापः अमरगुप्तो नाम आचार्य इति । जातश्च लोके लोकवादः 'अहो अयं महातपस्वी क्षीणास्रवद्वारः समुत्पन्नावधि इस समय में ही आप मुनि बन गये ?" तब भगवान् ने कहा, "हे महाश्रावक ! यह श्रमण दीक्षा का काल नहीं हो, ऐसा नहीं है। क्या असमय में समस्त देवताओं और असुरों को जीतने वाली, समस्त मनोरथ रूपी पर्वतों के लिए घोर वज्र के समान मृत्यु नहीं होती है जो कि प्रियजनों के वियोग की एकमात्र कारण है तथा मनीषियों के संवेग (वैराग्य) को बढ़ाने वाली है । महाश्रावक ! दूसरी बात यह है कि शुभ होने से यदि अन्तिम समय में धर्म का सेवन किया जाता है तो उसी का पहले सेवन करना क्या अयुक्त है ?" राजा ने कहा, "भगवन् ! अयुक्त नहीं है, किन्तु वैराग्य अकारण नहीं होता है, अत: वैराग्य का कारण पूछता हूँ। भगवान् ने कहा, “संसार ही वैराग्य का कारण है, तथापि विशेष रूप से अवधिज्ञानी द्वारा अपने चरित्र का कथन कारण है।" राजा ने कहा, "कैसा अवधिज्ञानी द्वारा अपने चरित्र का कथन ?" भगवान ने कहा, “सुनो - इसी देश में राजपुर नाम का नगर है। उसका निवासी मैं जब संसार के स्वरूप से ही विरक्तमन होकर रह रहा था तो अनेक श्रमणों के स्वामी कुछ ही समय पहले अवधिज्ञान को प्राप्त होने के कारण पुण्यपाप को जानने वाले अमरगुप्त नाम के आचार्य आये। लोगों में चर्चा फैल गयी 'अरे यह महातपस्वी आस्रवद्वार Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001881
Book TitleSamraicch Kaha Part 1
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1993
Total Pages516
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & literature
File Size13 MB
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