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________________ २२६ नवसागरोवमाऊ रइल च्छ्सिमागमे विमाणम्मि । सामाणिओ महप्पा बंभसुरेसस्स दिव्वजुई ||३३७॥ इयरी वि कालसेसं गमिउं मरिऊण सक्करप्पहाए उववन्ना नेरइओ तिसागराऊ महाघोरो ॥३३८॥ नवसागरोपमायू रतिलक्ष्मीसमागमे विमाने । सामानिको महात्मा ब्रह्मसुरेशस्य दिव्यद्युतिः ॥ ३३७ ॥ इतराऽपि कालशेषं गमयित्वा मृत्वा शर्कराप्रभायाम् । उपपन्ना नैरयिकः त्रिसागरायुर्महाघोरः ॥ ३३८ ॥ Jain Education International याकिनीमहत्तरा सून - परमगुणानुरागि परमसत्यप्रिय भगवत् - श्रीहरिभद्रसूरिवररचितायां 'समराइच्चकहाए' तइओ भवो समत्तो । [समराइका रतिलक्ष्मी का जिसमें समागम था, ऐसे ब्रह्म ेन्द्र के विमान में दिव्य द्युति वाला नव सागर की आयु वाला महात्मा सामाजिक देव हुआ। दूसरी ( माता जालिनी) भी शेष समय को बिताने के बाद मरकर शर्कराप्रमा नामक नरक में तीन सागर की आयुवामी महा भयंकर नारकी हुई ।। ३३७-३३८ ॥ ॥ तृतीय भाव समाप्त ॥ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001881
Book TitleSamraicch Kaha Part 1
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1993
Total Pages516
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & literature
File Size13 MB
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