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________________ चउत्थो भवो सिहिजालिणिमाइसुया जं भणियमिहासि तं गय मियाणि । वोच्छामि समासेणं धणधणसिरिमो य पइभज्जा ||३३|| अस्थि इहेव जंबुद्दीवे दीवे भारहे वासे सोहम्मसुरलोयपडिच्छंदयभूयं निन्चुस्सवाणंदपमुइयमहाजणं अविरयपवत्तपेच्छणय सोहियं सुरसरियासलिलनिद्धोयपेरंतं सुसम्मनयरं नाम पुरबरं तुलियसुरसुंदरीयण लडहत्तणरूबवे स विहवाहि पउरंगणाहि कलियं मयरद्धयपडायाहिं । मोत् सव्वमन्नं परत्यसंपायणेवक तल्लिच्छो । जत्थ पुरिसाण वग्गो वह जहत्थं नियं नामं ॥ ३४० ॥ तत्थ पडिवक्खन रणाहदोघट्टकेसरी सुधणू नाम राया । तस्स बहुमओ सव्वनयरेक्कसेट्ठी वीणाणाह किविणजणवच्छलो बंधवकुमुयायरससी लहुइयवेसमणविहवो तिवग्गसंपायणरई वेसमणो शिखिजालिनी मातृसुतौ यद् भणितं तद्गतमिदानीम् । वक्ष्ये समासेन धनधनश्रियौ च पतिभार्ये ॥ ३३६ ॥ अस्ति इहैव जम्बूद्वीपे द्वीपे भारते वर्षे सौधर्मसुरलोकप्रतिछन्दकभूतम्, निल्मोत्सवानन्दप्रमुदितमहाजनम्, अविरतप्रवृत्तप्रेक्षणकशोभितम्, सुरसरित्सलिलनिद्धों तपर्यन्तं सुशर्मनगरं नम्म पुरवर तुलितसुरसुन्दरीजनल टभ (प्रशस्त ) त्वरूपवेशविभवाभिः पौराङ्गनाभिः कलितं मकण्वज- पताकाभिः । मुक्त्वा सर्वमन्यत् परार्थ सम्पादनैकतत्परः । यत्र पुरुषाणां वर्गों वहति यथार्थं निजं नाम ॥ ३४० ॥ तत्र प्रतिपक्ष नरनाथदोघट्ट ( हस्ति) केसरी सुन्वा नाम राजा । तस्य बहुमतः सर्वनगरैक श्रेष्ठी दोनानाथकृपणजनवत्सलो बान्धवकुमुदाकरशशो लघूकृत वैश्रमणविभवः त्रिवर्गसम्पादन रतिर्वैश्रमणो Jain Education International सिखी और जालिनी नामक पुत्र तथा माता के विषय में जो कहा गया वह यहाँ पूरा हो गया । अब धन और धनश्री नामक पति और पत्नी के विषय में संक्षेप में कहूँगा ॥ ३३९॥ इसी जम्बूद्वीप के भारतवर्ष में सुशर्मनगर नामक श्रेष्ठ नगर था । वह सौधर्म स्वर्ग के सदृश था । वहाँ के लोग नित्य उत्सव और आनन्द से प्रमुदित रहते थे । निरन्तर होने वाले नाटकों से वह नगर शोभित था । बाकाशगंगा के जल से उसका प्रान्तभाग धोया जाता था । वहाँ देवांगनाओं के समान प्रशस्त रूप, वेश और वैभव वाली पौरांगनाएं थीं जो कामदेव की पताका के समान लगती थीं । अन्य सब कुछ कार्य छोड़कर एकमात्र परोपकार करने में ही तत्पर वहाँ का पुरुषवर्ग अपने यथार्थ नाम की धारण करता था ॥ ३४० ॥ वहाँ पर शत्रु राजा रूपी हाथी सम्मानित सारे नगर का अद्वितीय सेठ, कुमुदों के लिए चन्द्रमा के तुल्य, कुबेर के के लिए सिंह के समान सुधन्वा नामक दीन, अनाथ और कृपण जनों पर प्रेम वैभव को तिरस्कृत करने वाला, धर्म, For Private & Personal Use Only राजा था। उस राजा के द्वारा रखने वाला, बन्धुबान्धव रूप अर्थ और कामरूप त्रिवर्ग के www.jainelibrary.org
SR No.001881
Book TitleSamraicch Kaha Part 1
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1993
Total Pages516
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & literature
File Size13 MB
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