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जा एयाणहिंसा सम्म मण-वयण-कायजोएहि । तं होइ अभयदाणं सुसाहुजणसेवियं पवरं ॥२५७॥ इच्छंति सव्वजीवा निब्भरदुहिया वि जीविउं जम्हा। तम्हा तं चेव पियं तेसि कुसलेण विन्नेयं ॥२५॥ जम्हा य नरवरिंदो मरणम्मि उवद्वियम्मि रज्जं पि। देइ सजीवियहेउं तम्हा तं चेव इट्टयरं ॥२५॥ दायव्वं च मइमया जं इ8 होइ गाहगाणं तु। तं दाणं परलोए सुहमिच्छतेण सुविसालं ॥२६०॥ दीहाऊ उ सुरूवो नीरोगो होइ अभयदाणेणं। जम्मंतरे वि जीवो सयलजणसलाहणिज्जो य ॥२६१॥ एयं तु अभयदाणं तियसिंदरिंदनमियचलणेहिं । सावय ! जिणेहि भणियं दुज्जयकम्मट्ठदलणेहि ॥२६२॥
या एतेषामहिंसा सम्यग् मनो-वचन-काययोगः । तद् भवति अभयदानं सुसाधुजनसेवितं प्रवरम् ॥२५७॥ इच्छन्ति सर्वजीवा निर्भरदुःखिता अपि जीवितुं यस्मात् । तस्मात् तदेव प्रियं तेषां कुशलेन विज्ञेयम् ॥२५८॥ यस्माच्च नरवरेन्द्रो मरणे उपस्थिते राज्यमपि । ददाति स्वजीवितहेतुं तस्मात् तदेव इष्टतरम् ॥२५६।। दातव्यं च मतिमता यदिष्टं भवति ग्राहकाणां तु । तद् दानं परलोके सुखमिच्छता सुविशालम् ॥२६०॥ दीर्घायुस्तु सुरूपो नीरोगो भवति अभयदानेन । जन्मान्तरेऽपि जीवः सकलजनश्लाघनीयश्च ।।२६१।। एतत् तु अभयदानं त्रिदशेन्द्रनरेन्द्रनतचरणैः । श्रावक ! जिनैर्भणितं दुर्जयकर्माष्टदलनैः ।।२६२।।
(जो) अहिंसा है-वह अभयदान है । इस श्रेष्ठ दान का सेवन उत्कृष्ट अच्छे साधुजन करते हैं। अत्यधिक दु:खी भी सभी जीव जीने की इच्छा करते हैं, अत: उनका वही प्रिय है ऐसा निपुण व्यक्ति को जानना चाहिए। चूंकि मनुष्यों में श्रेष्ठ राजा मरण उपस्थित होने पर अपने जीवन के लिए राज्य भी दे देता है क्योंकि वही (प्राण) इष्टतर है । ग्राहकों को जो दान इष्ट हो उस सुविशाल दान को परलोक में सुख की इच्छा रखने वाले बुद्धिमानों को देना चाहिए। अभयदान से दीर्घायु, अच्छे रूप वाला और नीरोग होता है और दूसरे जन्म में भी समस्त मनुष्यों के द्वारा प्रशंसनीय होता है । यह अभयदान हे श्रावक ! देवेन्द्र और नरेन्द्रों ने जिनके चरणों को नमस्कार किया है और दुर्जेय आठ कर्मों का जिन्होंने नाश कर दिया है ऐसे जनों ने कहा है ॥२५७-२६२।।
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