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________________ पजत्यो भवो मच्च, एगरुक्खनिवासिसउणतुल्ला वंधवा, विवायदारुणा य विसयपमाओ त्ति। तओ एयमायग्णिऊग संजायचरणपरिणामेण भणियं धणेण-भयवं अणुग्गिहीओ म्हि इमिणा आएसेण । ता संपाडेमि एयं । करेउ भयवं अणुगह, जाव निवेइऊण भयवओ वृत्तंतं अम्मापिईणं पव्वज्जामो पव्वज्ज ति । भयवया भणियं -- जहासुह, देवाणुप्पिया, मा पडिबंध करेहि ति । तओ गओ अम्मापिइसगासंधणो । परमसंवेगमुवगएण य तेण साहिओ एस वृत्तंतो अम्मापिईणं। पडिबुद्धा एए। चितियं च तेहि-अलं णे एवमसुहपरिणामे भवे पडिबंधणं, जोग्गो य णे पुत्तो; ता निक्खिविऊण इमस्स भारं पव्यज्जामो पव्वज्जं ति भणि। धणो । वच्छ, पडियग्गेहि मणिमोत्तियाइयं सारदव्वं; पवज्जामो अम्हे महापुरिससे वियं पव्वज्ज' ति। धणेण भणियं-ताय, जुत्तमेयं; संपत्तमणयभावेण पाणिणा इमं चेव कायव्वं ति । जं पुण समाइ8 ताएण, जहा पडियग्गेहि मणिमोत्तियाइयं सारदव्वं ति; एत्थ का उण सारया मणिमोत्तियाइदव्वस्स। कि समथमिणं भच्चुणो रक्खेउ, कि वा न होंति एयपहावओ जम्मजराइया बियारा, कि तीरइ इमिणा समत्थस्स अस्थिवग्गस्स विनिजितसुरासुरो मृत्युः, एकवृक्षनिवासिशकुनतुल्या बान्धवाः, विपाकदारुणश्चविषयप्रमाद इति । तत एवमाकर्ण्य सञ्जातचरणपरिणामेन भणितं धनेन । भगवन् ! अनुगहीतोऽस्मि अनेनादेशेन, ततः सम्पादयाम्येतम् । करोतु भगवान् अनुग्रहम्, यावद् निवेद्य भगवतो वृत्तान्तमम्बापित्रोः प्रपद्यामहे प्रव्रज्यामिति । भगवता भणितम्-यथासुखं देवानुप्रिय ! मा प्रतिबन्धं कुविति । ततो गतोऽम्बापितृसकाशं धनः । परमसंवेगमुपागतेन च तेन कथित एष वृत्तान्तोऽम्बापित्रोः । प्रतिबुद्धौ एतौ । चिन्तितं च ताभ्याम् –अलमावयोरेवमशुभपरिणामे भवे प्रतिबन्वेन, योग्यश्चावयोः पुत्रः, ततो निक्षिप्यास्य भारं प्रपद्यावहे प्रव्रज्यामिति भणितो धनः-वत्स ! प्रतिगृहाण मणिमौक्तिकादिकं सारद्रव्यम्, प्रपद्यावहे आवां महापुरुषसेवितां प्रव्रज्यामिति । धनेन भणितम्-तात ! युक्तमेतद, सम्प्राप्तमनुजभावेन प्राणिना इदमेव कर्तव्यमिति । यत्पुनः समादिष्टं तातेन, यथा प्रतिगहाण मणिमौक्तिकादिकं सारद्रव्यमिति, अत्र का पुनः सारता मणिमौक्तिकादिद्रव्यस्य ? कि समर्थमिदं मृत्यो रक्षितुम् ? किं वा न भवन्ति एतत्प्रभावतो जन्मजरादयो विकाराः? किं शक्यतेऽनेन अनित्य है, सर और असुरों को जीतने वाली मृत्यु सामर्थ्ययुक्त है, एक वृक्ष पर रहने वाले पक्षियों के समान बान्धव हैं, विषयों के कारण प्रमाद करने का फल भयंकर होता है।" इसे सुनकर जिसके चारित्ररूप परिणाम हो गये हैं, ऐसे धन ने कहा-"भगवन्! मैं इस आज्ञा से अनुगहीत हूं, अतः इसे पूरा करता हूँ। भगवान् कृपा कीजिए, मैं माता-पिता से वृत्तान्त निवेदन कर भगवान् से दीक्षा ल" भगवान् ने कहा-"जैसा देवानुप्रिय को अच्छा लगे, देर मत करो।" धन माता-पिता के पास गया । अत्यधिक विरक्त हुए उसने यह वृत्तान्त माता-पिता से कहा । ये दोनों प्रतिबुद्ध हुए और उन्होंने सोचा-इस प्रकार अशुभ फल वाले संसार में हम लोगों का रुकना व्यर्थ है और हम दोनों का पुत्र योग्य है । अतः इसी पर भार रखकर दीक्षा लेते हैं । धन से कहा-"पुत्र ! मणि, मोती आदि बहुमूल्य धन को ग्रहण करो, हम दोनों महापुरुषों के द्वारा सेवित दीक्षा लेते हैं।" धन ने कहा-"पिताजी, यह ठीक है, मनुष्यभव प्राप्त करने पर प्राणी को यही करना चाहिए । पुन: जो पिताजी आपने कहा कि मणि, मोती, आदि बहुमूल्य धन को ले लो तो (मेरा कहना है कि) मणि, मोती आदि द्रव्यों में क्या सार है ? क्या यह मृत्यु से रक्षा करने में समर्थ है ? क्या इसके प्रभाव से जन्म, जरा आदि विकार नहीं होते हैं ? क्या इससे १. समणधम्म-ख, 2. ""जरामरणाइया-ख । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001881
Book TitleSamraicch Kaha Part 1
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1993
Total Pages516
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & literature
File Size13 MB
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