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________________ मोजो भवो ] . १३४ पायच्छित्तं विणओ वेयावच्चं तहेव सज्झाओ। झाणं उस्सग्गो वि य अभितरओ तवो होइ ॥२०४॥ संजमो य सत्तरसविहो । भणियं च पंचासववेरमणं पंचिंदियनिग्गहो कसायजओ। वंडत्तिगविरई संजमो उ इय सत्तरसभेओ ॥२०॥ सच्चं पुण निरवज्जभासणं । सोयं च संजमं पइ निरुवलेवया । आकिंचणं च धम्मोवयरणाइरेगेणमपरिग्गया । बंभं च अट्ठारसविहाऽबंभवज्जणं ति' । एसो एवंभूओ जइधम्मो त्ति। एयं च सोऊण आविब्भूयसम्मत्तपरिणामेण भावओ पवन्नसावयधम्मेण भणियं सीहकुमारेणंभगवं! सोहणो जइधम्मो। एयं काउमसमत्थेण ताव कि कायव्वं ति ? धम्मघोसेण भणियं--'सावयत्तणं' । केरिसं तयं ति ? कहियं सम्मत्तमाइयं । पवन्नो दव्वओ वि। तओ अप्पाणं कयकिच्दं मन्नमाणो कंचि बेलं पज्जुवासिऊण धम्मघोसं वंदिऊण य सविणयं पविट्ठो नयरं । साहिओ तेण वुतंतो प्रायश्चित्तं विनयो वैयावृत्यं तथैव स्वाध्यायः ।। ध्यानमुत्सर्गोऽपि च अभ्यन्तरः तपो भवति ॥२०४॥ संयमश्च सप्तदशविधः । भणितं च पञ्चास्रवविरमणं पञ्चेन्द्रियनिग्रहः कषायजयः । . दण्डत्रिकविरतिः संयमस्तु इति सप्तदशभेदः ॥२०॥ सत्यं पुननिरवद्यभाषणम् । शौचं च संयम प्रति निरुपलेपता । आकिञ्चन्यं च धर्मोपकरणातिरेकेणापरिग्रहता। ब्रह्म च अष्टादशविधाऽब्रह्मवर्जनमिति । एष एवंभूतो यतिधर्म इति। एवं च श्रुत्वाऽविर्भूतसम्यक्त्वपरिणामेन भावतः प्रपन्नश्रावकधर्मेण भणितं सिंहकुमारेणभगवन् ! शोभनो यतिधर्मः । एवं कर्तुमसमर्थेन तावत् किं कर्तव्यम् इति ? । धर्मघोषेण भणितम्श्रावकत्वम्। कीदृशं तदिति ? कथितं सम्यक्त्वादिकम् । प्रपन्नो द्रव्यतोऽपि । तत आत्मानं कृतकृत्यं मन्यमानः कांचिद् वेलां पर्युपास्य धर्मधोषं वन्दित्वा च सविनयं प्रविष्टो नगरम् । प्रायश्चित्त, विनय, वैयावृत्य, स्वाध्याय, ध्यान और उत्सर्ग-ये आभ्यन्तर तप हैं ॥२०४॥ संयम सत्रह प्रकार का होता है। कहा भी है पांच आस्रवों से विरक्त होना, पाँच इन्द्रियों को वश में करना, (चारों) कषायों को जीतना, तीन दण्डों (मन-वचन-काय के अशुभ-व्यापार) से विरति- इस प्रकार संयम के सत्रह भेद हैं ॥२०॥ निर्दोष वचन बोलना सत्य है, संयम के प्रति निरुपलेपता (अतिचारशून्यता) शौच है। धर्म के उपकरण को छोड़कर अन्य का परिग्रह न करना आकिंचन्य है । अठारह प्रकार के अब्रह्म का त्याग करना ब्रह्मचर्य है। इस प्रकार यह यति धर्म हुआ। यह सुनकर जिसे सम्यक्त्व भाव उत्पन्न हो गया है, ऐसे भाव रूप से श्रावक धर्म को प्राप्त सिंहकुमार में कहा, "भगवन् ! यतिधर्म सुन्दर है। इसका आचरण करने में यदि कोई असमर्थ हो तो क्या करें ?" धर्मघोष ने कहा, "श्रावकधर्म का पालन करो।" सिंहकुमार ने पूछा, "वह कैसा है ?" धर्मघोष ने सम्यक्त्वादि का निरूपण किया। तब वह द्रव्यरूप से भी श्रावक हो गया । अनन्तर अपने आपको कृतकृत्य मानता हुआ कुछ समय तक धर्मघोष की पर्युपासना (सान्निध्यलाम) कर विनयपूर्वक प्रणाम कर नगर में प्रविष्ट हुआ। उसने १. त्ति। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001881
Book TitleSamraicch Kaha Part 1
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1993
Total Pages516
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & literature
File Size13 MB
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