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________________ १४० [समराइचकहा कुसुमावलीए । पवन्ना' य एसा वि कहंचि कम्मक्खओवसमओ सावयधम्म । अणुदियहं च धम्मघोसगुरुपज्जुवासणपराणं अइक्कतो मासो। भावियाणि जिणधम्मे । अन्नया य पुरिसदत्तो राया अमियतेयगुरुसमीवे सोऊण धम्म अहिसिंचिऊण रज्जे सोहकुमारं संजायसंवेगो सह महादेवीए सिरिकंताए पवन्नो मुत्तिमग्गं। सीहकुमारो वि धम्माधम्मववत्थपरिपालणरओ सयलजणमणाणंदयारी अणरत्तसामंतमंडलो दोणाणाहकिविणजणोवयारसंपायणरई जहोइयगुणजुत्तो रायरिसी समुवजाओ तिा एवं च अच्चंताणुरत्तं च पियपणइणि पिव मेइणि भुजंतस्स अइक्कंतो कोइ कालो। एत्थंतरम्मि सो अग्गिसम्मतावसदेवो तओ विज्जुकुमारकायाओ चविऊणं संसारमाहिडिय अणंतरभवे य किपि बालसवविहाणं काऊण मोतूण तं देहं पुवकम्मवासणाविवागदोसेण समुप्पन्नो कुसुमावलीए कच्छिसि । दिट्ठो तीए सुमिणओ। जहा-पविट्ठो ने उयरं भुयंगमो, तेणं च निग्गच्छिऊण डक्को राया निवडिओ सिंघासणाओ। तं च दठूण ससज्झसा विय विउद्धा कुसुमावली । अमंगलं ति कलिऊण न साहिओ तीए दइयस्स। पवड्डमाणगम्भा य तद्दोसओ चेव न वहु मन्नए नरवई। राया कथितश्च तेन वृत्तान्तः कुसुमावल्याः । प्रपन्ना च एषाऽपि कथंचित् कर्मक्षयोपशमतः श्रावकधर्मम । अनदिवसं च धर्मघोषगुरुपर्युपासनपरयोरतिक्रान्तो मासः। भावितौ जिनधर्मे । अन्यदा च पुरुषदत्तो राजा अमिततेजोगुरुसमीपे श्रुत्वा धर्म अभिषिच्य राज्ये सिंहकुमारं संजातसंवेगः सह महादेव्या श्रीकान्तया प्रपन्नो मुक्तिमार्गम् । सिंहकुमारोऽपि धर्माधर्मव्यवस्थापरिपालनरतः सकलजनमनआनन्दकारी अनुरक्तसामन्तमण्डलो दीनानाथकृपणजनोपकारसम्पादन रतिर्यथोचितगुणयुक्तो राजर्षिः समुपजात इति । एवं चात्यन्तानुरक्तां च प्रियप्रणयिनीमिव मेदिनीं भजतोऽतिक्रान्तः कोऽपि कालः। अत्रान्तरे सोऽग्निशर्मतापसदेवस्ततो विद्युत्कुमारकायाच्च्युत्वा संसारमाहिण्ड्य अनन्तरभवे च किमपि बालतपोविधानं कृत्वा मुक्त्वा तं देहं पूर्वकर्मवासनाविपाकदोषण समुत्पन्नः कुसुमावल्याः कक्षौ । दष्टस्तया स्वप्नः । यथा-प्रविष्टो मे उदरं भुजङ्गमः, तेन च निर्गत्य दष्टो राजा निपतितो सिंहासनात, तं च दष्ट्वा साध्वसा इव विबुद्धा कुसुमावली। अमङ्गलमिति कलित्वा न कथितस्तया दयितस्य । प्रवर्धमानगर्भा च तद्दोषत एवन बहु मन्यते नरपतिम् । राजा चाधिकं स्नेहपरवशः । कुसुमावली से वृत्तान्त कहा । कथंचित् कर्म के क्षयोपशम से यह भी श्रावकधर्म को प्राप्त हई। प्रतिदिन धर्मघोष गुरु की उपासना करते हुए एक मास बीत गया। वे दोनों जिनधर्म से अनुभावित होते रहे । एक बार राजा पुरुषदत्त ने अमिततेज गुरु के समीप धर्म सुनकर राजसिंहासन पर सिंहकुमार का अभिषेक कर (संसार के प्रति) भयभीत होकर महादेवी श्रीकान्ता के साथ मोक्षमार्ग का अवलम्बन किया। सिंहकुमार भी यथोचित गुणों से युक्त हो राजर्षि हो गये । वे धर्माधर्म की व्यवस्था के परिपालन में रत रहते थे। समस्त लोगों के मन को आनन्द देते थे। सामन्त-समूह को अनुरक्त करते थे। दीनों, अनाथों तथा दुःखी मनुष्यों के उपकार में उन्हें अनुराग था । इस प्रकार प्रिय प्रेमिका के समान अत्यन्त अनुरक्त पृथ्वी का भोग करते हुए कुछ समय व्यतीत हो गया। इसी बीच वह अग्निशर्मा तापस देव उस विद्युत्कुमार के शरीर से च्युत होकर संसार में भ्रमण करता हा अनन्तर भव में कुछ बालतप तपकर उस देह को छोड़कर पूर्वकर्मों के संस्कार के फलरूप दोष से कुसुमावली के गर्भ में आया । कुसुमावली ने स्वप्न में देखा-मेरे उदर में सर्प प्रवेश कर रहा है, उसने निकल कर राजा को इस लिया और राजा सिंहासन से गिर पड़ा। उसे देखकर घबड़ाती हुई-सी कुसुमावली जाग उठी। अमंगल मानकर उसने पति से नहीं कहा। बढ़ते हुए गर्भ के दोष से वह राजा को अधिक नहीं मानती थी। १. पवन्नो-च २. धम्मे-ख, For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.001881
Book TitleSamraicch Kaha Part 1
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1993
Total Pages516
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & literature
File Size13 MB
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