________________
वीमो भवो य अहियं सिणेहपरवसो। भणिया य परियणेणं 'सामिणि ! न जुत्तमेयं ति। तीए भणियं-'किमहं करेमि' ? साहियं परियणेणं-जहा देवं न बहु मन्नसि ति। तीए भणियं-नूणं एस गब्भदोसो भविस्सइ । अन्नहा कहमहं अज्जउत्तं न बहु मन्नेमि । अन्नया समुप्पन्नो से दोहलो, जहा - इम्मस्स चेव राइणो अंताणि खाइज्ज ति। चितियं च तीए-पाधयारी मे एस गब्भो, ता अलं इमिणा। इत्थीसहावओ य भत्तारनेहओ य समुप्पन्नो से ववसाओ, जहा पाडेमि एवं ति। तओ आलोचिऊण पहाणपरियणं कज्जगरुययाए य अणुन्नाया तेण गब्भपरि साउणं काउमारद्धा। न य सो निकाइयकम्मदोसेण पडइ त्ति । तओ सा अणेगोसहपाणणं डोलयासंपत्तीए य परिदुब्बला जाया। पुच्छ्यिा य राइणा-संदरि ! कि ते न संपज्जइ, केण वा ते खंडिया आणा, किं वा मए पडिकलमासेवियं, जं निवेएण तुम अप्पोयगा विव कुमुइणी' एवं झिज्जसि ति? तओ पडिस्यियलद्धनेह भणियं कुसुमावलीए-अज्जउत्त ! ईचिसो मे निवेओ, जेण चितेमि 'अत्ताणयं वावाएमित्ति। राइणा भणियं-सुंदरि ! कि निमित्तो ति? कुसुमावलीए भणिवं-अज्जउत्त ! भागधेयाणि मे पुच्छसु त्ति भणिऊण वाहजलभरियलोयणा सगग्गया संजुत्ता । तओ राइणा 'महंतो से निवेओ, ता अलं भणिता च परिजनेन-स्वामिनि ! न युक्तमेतदिति । तया भणितम्-किमहं करोमि ? कथितं परिजनेन-यथा देवं न बहु मन्यसे इति । तया भणितम् ---ननमेष गर्भदोषो भविष्यति ; अन्यथा कथमहमार्यपुत्रं न बहु मन्ये । अन्यदा समुत्पन्नस्तस्या दोहदः, यथा-अस्यैव राज्ञोऽन्त्राणि खादामोति चिन्तितं च तया-पापकरी मम एष गर्भः, ततोऽलमनेन। स्रीस्वभावतश्च भर्तृ स्नेहतश्च समुत्पन्नस्तस्य व्यवसायः, यथा पातयाम्येतमिति । तत आलोच्य प्रधानपरिजनं कार्यगुरुतयाऽनुज्ञाता तेन गर्भपरिशाटनं कर्तुमारब्धा । न च स निकाचितकर्मदोषेण पततीति । ततः साऽनेकौषधपानेन दोहदासम्प्राप्त्या च परिदुर्बला जाता। पृष्टा च राज्ञा-सुन्दरि ! किं तेन संपद्यते, केन वा तव खण्डिताज्ञा, किं वा मया प्रतिकलमासेवितम्, यद् निदेन त्वमलोदका इव कुमुदिनी एवं क्षीयसे इति । ततः प्रतिहृदयलब्धस्नेहं भणितं कुसुमावल्या-आर्यपुत्र ! ईदृशो मे निर्वेदः, येन चिन्तयामि ‘आत्मानं व्यापादयामि' इति। राज्ञा भणितम्-सुन्दरि ! किं निमित्तं इति ? कुसुमावल्या भणितम्-आर्यपुत्र ! भागधेयानि मम पच्छ इति भणित्वा वाष्पजलभतलोचना सगद्गदा संवत्ता । ततो राज्ञा 'महान् राजा अत्यधिक स्नेह से परवश था। सेवकों ने कहा, "स्वामिनि ! यह ठीक नहीं है।" उसने कहा, "मैं क्या करती हूँ?" सेवकों ने कहा, "आप महाराज को अधिक नहीं मानती हैं।"उसने कहा, "निश्चित रूप से यह गर्भ का दोष होगा अन्यथा आर्यपुत्र को कैसे अधिक न मानती।" एक बार उसे दोहला हुआ कि इसी राजा की आँतों को खाऊँ । उसने बिचार किया --मेरा यह गर्भ पापी है अत: इससे क्या लाभ ? स्त्री स्वभाव और पति के प्रति स्नेह होने से उसने निश्चय किया कि इसे गिरा हूँ। तब प्रधान सेविकाओं से विचार-विमर्श कर उनकी सम्मति से गर्मपात करना प्रारम्भ किया। तीव्रकर्मों के बन्ध के दोष से वह गर्भ नहीं गिरा । तब वह अनेक औषधियों के पीने और दोहले के पूरे न होने के कारण अत्यधिक दुर्बल हो गयी। राजा ने पूछा, "सुन्दरि ! तेरा क्या कार्य पूरा नहीं होता है ? किसने तुम्हारी आज्ञा खण्डित की अथवा मैंने क्या प्रतिकूल कार्य किया जिससे दुःखी होकर थोड़े जलवाली कुमुदिनी के समान क्षीण हो रही हो ?" तब हार्दिक स्नेह प्राप्त कर कुसुमावली ने कहा, "मेरा विषाद ऐसा है जिससे सोचती हूँ कि अपने आपको मार डालू।" राजा ने कहा, "सुन्दरि ! इसका क्या कारण है ?" कुसुमावली ने कहा, "आर्यपुत्र ! मेरे भाग्य से पूछो"-ऐसा कहकर आँखों में आँसू भरकर विह्वल हो गयी। तब राजा ने 'इसका १. सिणेहपीडिओ-ख, २. थीसहावओ-ख, ३. कमलिपी-ख।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org