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________________ ४५ भूमिका ] दौडी। राजा ने हंकार की । यक्षिणी अदृश्य हो गयी। एक बार वह मेरे समान शरीर धारण कर राजा की शय्या पर चली गयी । राजा ने मुझे यक्षिणी समझकर राजपुरुषों के द्वारा अपमानित कराकर बाहर निकाल दिया। अनन्तर मैं अपने आपको मारने का विचार कर पर्वत के सम्मुख गयी । गुफा में स्थित कुछ साधुओं ने मुझे देखा। एक सुगहीत नाम वाले साधु ने मुझे समझाया। मैंने उनसे पूछा -- मैंने कौन-सा पाप किया, जिसका यह फल है । भगवान् ने कहा-पुत्री ! सुनो--- भारतवर्ष के उत्तरापथ देश में ब्रह्मपुर नगर है । वहाँ पर ब्रह्मसेन नाम का राजा था । उस राजा के विदुर नाम का ब्राह्मण था। उसकी पुरन्दरयशा नामक पत्नी थी। उन दोनों के तुम इससे पहले नौवें भव में चन्द्रयशा नामक पुत्री थी। चन्द्रयशा की यशोदास सेठ की पत्नी बन्धुसुन्दरी से प्रीति हो गयी । एक बार बन्धुसुन्दरी ने चन्द्रयशा से कहा---मेरे पति मुझसे विरक्त होकर मदिरावती के प्रति अत्यधिक आसक्त हैं । चन्द्रयशा एक परिव्राजिका के पास गयी और उससे एक विशेष प्रकार का चूर्ण बनवाया तथा उसका विधिपूर्वक प्रयोग कराया, जिससे सेठ ने मदिरावती को छोड़ दिया। इस कारण तुमने क्लिष्ट कर्म बाँधा। आय के अन्त में मृत हो उसी कर्म के दोष से हथिनी हुई और यूथाधिप की अप्रिय बनी। हाथी को पकड़ने के लिए बनाये गये गड्ढे में गिरकर वहाँ पर मृत हो उसी कर्म के दोष से बानरी हुई ! वहाँ भी झुण्ड के स्वामी की अत्यन्त अप्रिय थी। अनन्तर क्रमश: कुत्ती, बिल्ली, चकवी तथा चाण्डाल स्त्री हुई और उसी कर्म के दोष से अपने स्वामियों के द्वारा छोड़ी गयी । अनन्तर शबरी होकर शबर-स्वामी द्वारा त्यागी गयी । शबरी के भव में रास्ता भूले हुए साधुओं को रास्ता दिखाने तथा धर्म धारण करने के प्रभाव से उस शेष कर्म के दोष के साथ ही श्वेतविका के राजा की पुत्री हुई। उस कर्म के शेष रहने के कारण ही यक्षिणी के रूप से ठगे गये राजा ने तुम्हारा तिरस्कार किया। दूसरे दिन राजा उसके समीप आया। रानी ने राजा से सारा वृत्तान्त कहा । यह सुनकर राजा विस्मित हुआ और सुरसुन्दर नामक बड़े पुत्र को राज्य पर बैठाकर अनेक सामन्त, अमात्य और समस्त अन्तःपुर के साथ प्रवजित हो गया। यह सुनकर रत्नवती ने कहा- भगवती ! आपने बहुत दुःख भोगा। अब मुझे अपने कर्तव्य का आदेश दीजिए। भगवती ने उसे श्रावक के व्रत ग्रहण कराये। पाँचवें दिन कुमार आया। रत्नवती सन्तुष्ट हुई । काल-क्रम से रत्नवती के पुत्र उत्पन्न हुआ। पौत्र-मुख दर्शन से कृतार्थ हो मैत्रीबल प्रवजित हो गया। कुमार भी महाराज हो गये । राज्य-पालन करते हुए कुछ समय बीत गया। एक बार नदी को देखने के निमित्त से राजा को वैराग्य हो गया। उसने विजयधर्म मुनिवर के पास दीक्षा ले ली । निरतिचार घुमते हए उनका कुछ समय बीत गया। एक बार वह कोल्लाक सन्निवेश में गये और वहाँ प्रतिमा-योग से स्थित हो गये । वानमन्तर ने गुणचन्द्र मुनिराज के ऊपर अनेक प्रकार के उपसर्ग किये। मुनिराज निष्कम्प रहे । राजा ने आकर उनकी वन्दना की। विरक्त होकर राजा भी प्रव्रजित हो गया। कुछ समय बीत गया। __ वानमन्तर इस भव की आयु लगभग क्षीण होने पर ऋषि के वधरूप परिणामों से अशुभकर्मों का संचय कर तीव्र रोगग्रस्त हो गया । अत्यधिक दुःख से व्याकुल हो वह रौद्रध्यान के दोष से मरकर 'महातम' नामक नरक की पृथ्वी में तैतीस सागर की आयु वाले नारकी के रूप में उत्पन्न हुआ। मुनिराज भी समाधिमरण धारण कर देह त्यागकर सर्वार्थसिद्धि नामक विमान में तैतीस सागर की आयु वाले देव के रूप में उत्पन्न हुए। नौवें भव की कथा जम्बूद्वीप के भारतवर्ष में उज्जयिनी नगरी में पुरुषसिह नामक राजा राज्य करता था। उसकी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001881
Book TitleSamraicch Kaha Part 1
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1993
Total Pages516
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & literature
File Size13 MB
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